History of Chamba
चम्बा राजवंश के मौर्य शासक
चम्बा के मौर्य शासक
चम्बा राजवंश का पूर्व वंशज राजस्थान के चित्तौड़ से हिमाचल की ओर चला गया था। अंग्रेजी इतिहासकार कनिंघम को चम्बा क्षेत्र की अपनी खोज यात्रा में गुप्त लिपि में चम्बा के प्राचीन शासकों द्वारा उत्कीर्णित शिलालेख और बहुसंख्यक ताम्रपत्र मिले थे। इन शिलालेखों और ताम्रलेखों से चम्बा राजवंश के इतिहास पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। उक्त प्राप्त अभिलेखों से कनिंघम मानते हैं कि चम्बा का राजवंश भारत के प्राचीन राजवंशों में सबसे प्राचीन राजवंश है। ई. 550 के लगभग चम्बा राज्य की स्थापना मानी जाती है। इस वंश की वंशावली बड़ी लम्बी है, जो अभिलेखों और ताम्रलेखों के मिलान से सही सिद्ध होती है।
वंशावली में इन्हें सूर्यवंशी और राम के पुत्र कुश का वंशज बताया गया है। चम्बा राजवंश वालों का मानना है कि उनके पूर्वजों ने चित्तौड़ से आकर पहाड़ी भाग पर अपना राज्य स्थापित किया था। ईस्वी सन् 550 में चित्तौड़ पर मौर्यों का राज्य था और ये लोग सूर्यवंशी थे। अतः यह स्पष्ट है कि चम्बा राजवंश वाले सूर्यवंशी हैं और चित्तौड़ के सूर्यवंशी मौर्यों की ही एक शाखा हिमप्रदेश की ओर आई थी।
इस वंश का प्रथम शासक मरु था, जिसने पहाड़ी भू-भाग पर अपने राज्य की आधारशिला रखी थी। इसने भरमोर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। वृद्धावस्था में उसने अपने पुत्र जयस्तंभ को राज्य सौंपकर संन्यास ले लिया था। जयस्तंभ का चौथा वंशज आदित्य वर्मा था। इसका पौत्र दिवाकर विक्रम और उसका पुत्र मेस्वर्मन था। यह भरमोर के शासकों में सर्वाधिक प्रतापी और वीर था। इसने अनेक इमारतों और देव मन्दिरों का निर्माण करवाया था। उसके समय की प्राप्त विशाल मूर्तियाँ सर्व धातू की है। इन पर मेरुवर्मन का नाम उत्कीर्णित है। मेरुवर्मन ने अपने राज्य का काफी विस्तार किया था। कनिंघम ने इसका शासन समय 680 से 700 ईस्वी माना है।
इस वंश का बीसवां राजा शाहिल वर्मन था। यह 920 ई. में भी विद्यमान था। इसने लम्बे समय तक राज्य किया था। शाहिल वर्मन के राज्य में एक बार 84 योगियों की एक मंडली आई। राजा ने उनकी श्रद्धापूर्वक सेवा- भक्ति की। उनके वरदान से शाहिल वर्मन के दस पुत्र और चम्पावती नाम की एक कन्या का जन्म हुआ। शाहिल वर्मन ने रावी नदी की घाटी के नीचे का भाग और कतिपय छोटे-छोटे राज्यों को जीता था। कुल्लू वालों और शाहिल वर्मन में बीस वर्ष तक युद्ध चला। इन युद्धों में योगी चरपटनाथ तथा राजा की एक रानी और राजकुमारी भी साथ रहती थी। राजकुमारी चम्पावती की इच्छा और चरपटनाथ की सलाह से राजा ने चम्पा को बसाया जिसका कालान्तर में 'चम्बा' नामकरण हो गया और भरमोर के स्थान पर इसे नवीन राजधानी का गौरव प्रदान किया गया था।
राजा शाहिल की रानी नयनादेवी योग सिद्ध नारी थी। चम्बा क्षेत्र में उसका मन्दिर है और उसकी देवी के रूप में पूजा होती है। राजा शाहिल जैसा वीर था, वैसा ही धार्मिक भी था। उसने विष्णु और लक्ष्मी नारायण के मंदिर बनवाए थे। इतिहासकार कनिंघम का कथन है कि शाहिल और गजनी के तुर्कों के बीच युद्ध हुआ था और उसमें तुर्क पराजित हुए थे। इस विजय से इसका यश सर्वत्र फैल गया था। ई. 1040 के लगभग शालिवाहन वर्मन राजा हुआ। राजतरंगिणी में वर्णन है कि कश्मीर के राजा अनन्तदेव (1028-63) ने चम्बा के राजा शैला पर चढ़ाई की थी। कनिंघम शालिवाहन को ही शैला मानता है। इस युद्ध में चम्बा की पराजय हुई। राजा अनन्तदेव ने इसे पदच्युत कर इसके पुत्र सोम वर्मन को चम्बा का शासक बनाया। तदनंतर चम्बा की गद्दी पर कई राजा बैठे। ई. 1175 में विजय वर्मन चम्बा का शासक बना। यह बड़ा वीर और योग्य शासक हुआ। इसने कश्मीर और लद्दाख पर आक्रमण कर वहाँ से खूब धन लूटा और अपनी सैन्य शक्ति में वृद्धि की।
प्रतापसिंह वर्मन ई. 1559 में चम्बा के राज सिंहासन पर बैठा। इसके और कांगड़ा के राजा के मध्य लड़ाई हुई। युद्ध में कांगड़ा की पराजय हुई। इस अभियान में प्रतापसिंह वर्मन को काफी खजाना प्राप्त हुआ था।
प्रतापसिंह वर्मन के समय में दिल्ली में मुगल बादशाह अकबर था। अकबर ने पहाड़ी राज्यों को मुगल आधिपत्य में लेने के लिए सैनिक चढ़ाइयाँ कीं। परिणामतः पर्वत भाग के अन्य कतिपय स्वतन्त्र राज्यों की तरह प्रतापसिंह को भी मुगलों का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा। प्रतापसिंह के पौत्र जनार्दन के और नूरपुर के राजा के बीच युद्ध हुआ यह लड़ाई बारह वर्ष तक चलती रही। जनार्दन नूरपुर के राजा जगतसिंह के हाथ से मारा गया और चम्बा पर नूरपुर के राजा का अधिकार हो गया। राजा जनार्दन ने युद्धकाल में अपने पुत्र पृथ्वीसिंह को चम्बा से बाहर भेज दिया था। इसलिए वह जीवित बचा रहा। पृथ्वीसिंह मंडी में रहकर बड़ा हुआ।
ई. 1641 में नूरपुर के राजा ने बादशाह शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उसका दमन करने के लिए शाही सेना भेजी गई। इस सैन्य अभियान की सहायता में पृथ्वीसिंह भी शाही सेना के साथ हो गया। जगतसिंह पराजित हो गया। तब शाहजादे मुरादबख्श ने पृथ्वीसिंह को चम्बा वापस दे दिया। 1641 में पृथ्वीसिंह का उत्तराधिकारी उसका पुत्र छत्रसिंह हुआ। इसके शासनकाल में बादशाह औरंगजेब ने हिन्दुओं के मन्दिरों को ध्वस्त कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनवाने की आज्ञा प्रसारित की। छत्रसिंह ने इस आदेश को स्वीकार नहीं किया और चम्बा के मन्दिर बच गए। वे मन्दिर आज भी सुरक्षित विद्यमान हैं। छत्रसिंह के पश्चात् कई राजा चम्बा के शासक हुए। ई. 1764 में नौ वर्ष की अल्पावस्था में राजसिंह चम्बा की राजगद्दी पर बैठा। इसकी नाबालिगी में जम्बू का रणजीतदेव शासन कार्य का संचालन करता था। उसे दीवान के पद पर नियुक्त किया गया था। उससे प्रजा सन्तुष्ट नहीं थी और वह राजकोष का भी दुरुपयोग करता था। इसलिए वयस्क होते ही राजसिंह ने रणजीतदेव को अपदस्थ कर बन्दीखाने में डाल दिया। एक बार राजसिंह कहीं अन्यत्र गया हुआ था। पीछे से रणजीतदेव के समर्थकों ने उसे कारावास से मुक्त कर चम्बा पर अधिकार कर लिया। इस पर राजसिंह ने सिक्खों की रामगढ़िया मिस्लवालों को एक लाख रुपया देकर सहायतार्थ बुलवाया और उनकी सहायता से जम्बू की सेना को राज्य सीमा से बाहर खदेड़ा।
राजसिंह ने ई. 1782 पर वंसाली पर हमला कर उस पर अधिकार कर लिया। फिर उनसे एक लाख रुपये सैन्य-व्यय के लेकर वापस उन्हें लौटा दिया। तदनंतर जैतसिंह और उसके बाद चरहटसिंह छह वर्ष की अवस्था में चम्बा का शासक बना। उसके बाल्यकाल में राज्य शासन उसकी माता देखती थी। इसकी गद्दीनशीनी के एक वर्ष बाद ही 1809 में पंजाब के राजा रणजीतसिंह ने चम्बा पर आक्रमण कर दिया। उसे काफी धन देकर चम्बा की रक्षा की गई, परन्तु एक प्रकार से चम्बा लाहौर (पंजाब) के अधीनस्थ राज्य के रूप में बन गया।
चरहटसिंह की मृत्यु के समय ई. 1844 में श्रीसिंह सिर्फ पाँच वर्ष का था। पंजाब के महाराजा रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद पंजाब की हालत बिगड़ गई थी तथा प्रथम सिक्ख युद्ध में अंग्रेजों ने सिक्खों को हरा दिया था। अब जम्बू का महाराजा गुलाबसिंह बड़ा ताकतवर हो गया था। वह चम्बा को हजम कर जाना चाहता था। तब चंबा का स्वामीभक्त बजीर भागों सर हैनरी लारेन्स के पास गया तथा सारी स्थिति से परिचित कराया। हैनरी लारेन्स ने भादरवा का इलाका तो गुलाबसिंह को दिला दिया, परन्तु चम्बा राज्य को अंग्रेजों के संरक्षण में लेकर 6 अप्रैल 1848 ई. को राजा श्रीसिंह को सनद दे दी। इसके अनुसार चम्बा को 12 हजार रुपये सालाना अंग्रेजों को देना निश्चय हुआ। राजा श्रीसिंह के कोई पुत्र नहीं था इस पर उन्हीं के छोटे भाई गोपालसिंह को ई. 1870 में चम्बा का राजा बनाया गया। राजा गोपालसिंह के बाद में उनके बड़े पुत्र टीका श्यामसिंह चम्बा के राजा बने। श्यामसिंह बड़े योग्य थे। इनके शासन में राज्य की बड़ी तरक्की हुई। इनकी शासन व्यवस्था बड़ी उत्तम थी। जिसकी प्रशंसा लॉर्ड कर्जन ने अपनी चम्बा यात्रा के समय की थी। इन्होंने अपने छोटे भाई भूरीसिंह को वजीर बनाया। कुछ वर्ष बाद इनकी तबीयत बड़ी खराब रहने लगी। इनके कोई पुत्र नहीं था, इसलिए अंग्रेज सरकार को लिखा कि मैं मेरे भाई भूरीसिंह के पक्ष में एबडीकेट करना चाहता हूँ। तो सरकार ने नहीं माना, परन्तु बाद में इनके ज्यादा जोर देने पर इसे स्वीकार कर लिया गया ।
सन् 1904 में भूरीसिंह चम्बा के राजा बनाए गए। भूरीसिंह का जन्म ई. 1869 में हुआ था। दूसरे वर्ष ई. 1905 में राजा श्यामसिंह का निधन हो गया। राजा भूरीसिंह बड़े योग्य शासक थे। इन्होंने राज्य बड़ी योग्यता से चलाया। जनता बड़ी सुखी थी। राज्य में सुधार तथा उन्नति के अनेक कार्य किए गए, जिससे जनता बड़ी प्रसन्न थी इनके दो पुत्र तथा दो पुत्रियाँ थीं। बड़े पुत्र टीका रामसिंह थे तथा छोटे केशरीसिंह। इनकी छोटी पुत्री कश्मीर के महाराजा हरिसिंह को ब्याही गई थी। इनकी ई. 1919 में होने पर इनके बड़े पुत्र टीका रामसिंह चम्बा के राजा हुए। रामसिंह ने अपने भाई केशरीसिंह को वजीर बनाया। 8 दिसम्बर ई. 1924 में राजा रामसिंह के पुत्र टीका लक्ष्मणसिंह का जन्म हुआ। राजा रामसिंह के भाई केशरीसिंह के दो पुत्र हैं। बड़े पुत्र गुलाबसिंह है जिन्हें इतिहास का काफी ज्ञान है और दूसरे कुंवर शेरसिंह हैं। राजा रामसिंह के बाद में उनके पुत्र लक्ष्मणसिंह चम्बा के राजा बने। राजा लक्ष्मणसिंहजी की रानी देवेन्द्रकुमारी राजस्थान के प्रतापगढ़ की राजकुमारी हैं। ये हिमाचल प्रदेश से विधायिका रह चुकी हैं। इनके तीन पुत्र हैं। बड़े प्रेमसिंह जो अब राजा हैं। दूसरे हेमसिंह और छोटे ब्रजेन्द्रसिंह हैं। इनकी पत्नी पिछली बार हिमाचल प्रदेश में विधायिका थीं। चम्बा राज्य का क्षेत्रफल 3216 वर्ग मील था। ब्रिटिशकाल में चम्बा शासकों को 11 तोपों की सलामी का सम्मान भी प्राप्त था।
मौर्यों के अन्य राज्य
मौर्यों के मुख्य राज्य समाप्त हो जाने के बाद भी मौर्यों के कई अन्य राज्यों के वर्णन मिलते हैं। ये राज्य मौर्य साम्राज्य के समय उनकी ही जाति वालों को जागीर के रूप में दिए गए होंगे, जो कि उनके सामन्त थे या मुख्य राज्य के समाप्त होने पर उनका खानदान इधर-उधर फैल गया था तथा कहीं-कहीं उन्होंने छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिये थे। ईसा की सातवीं शताब्दी में एक मौर्यवंशी राजा पुराण वर्मा का उल्लेख मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि मगध और उसके आस-पास के प्रदेशों में सातवीं शताब्दी तक भी उनके राज्य विद्यमान थे। इसी प्रकार बम्बई गजेटियर में प्रकाशित कई लेखों से ईसा की छठी सदी से आठवीं सदी में कोंकण और पश्चिमी भारत में मौर्यवंशियों के राज्य होने के प्रमाण मिले हैं।
ई. 738 के कोटा (राज.) के पास कंसवा के लेख में वहाँ के मौर्य शासक राजा धवल का वर्णन है। इससे प्रतीत होता है कि उस क्षेत्र में मौयों का राज्य था। वर्तमान शेखावाटी प्रदेश में लम्बे समय से योधेयों का राज्य था। मौयों ने उन्हें पश्चिम की ओर धकेलकर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया था। ऐसा उस प्रदेश में प्रचलित है। मरहठों में भी मौर्य हैं, जो अब भी मौरी कहलाते हैं। ये लोग महाराष्ट्र में हैं। वर्तमान में मौर्य उत्तरप्रदेश में मथुरा, आगरा, फतहपुर सीकरी तथा मध्यप्रदेश के उज्जैन, इन्दौर और लीमाड़ जिलों में हैं। मौर्यों के गोत्रादि निम्न प्रकार हैं गोत्र- गौतम, प्रवर तीन- गौतम, वसिष्ठ, बार्हस्पत्य, वेद- यजुर्वेद, शाखा-वाजसनेयी, सूत्र– पारस्कर गृहसूत्र, कुलदेव-खाण्डेराव, शुभ कार्य में यह मोर के पंख भी रखते हैं।
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