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जादौन यादवों की करौली रियासत का इतिहास
जादौन यादवों की करौली रियासत :-
करौली रियासत की स्थापना महाराजा विजयपाल जादौन (यादव राजपूत) ने 1405ई. में की थी। करौली रियासत का पुराना नाम भद्रावती बताया जाता है। करौली रियासत का नाम कल्याणजी के मंदिर के पीछे कल्याणपुरी रखा गया था, बाद में कल्याणपुरी का अपभ्रंश करौली हो गया। करौली रियासत मथुरा, ग्वालियर, आगरा, अलवर, जयपुर और टोंक से 70 मील के फासले पर स्थित है। करौली के जादौन यादव भगवान श्रीकृष्ण के वंशज हैं। करौली रियासत में एक मिट्टी का धूलकोट है, जहां पर जादौन यादव राजाओं की देवलियां (स्मृति-भवन) है जो युद्ध में एक साथ मारे गए थे। महाराजा अर्जुनपाल के द्वारा बनाए गए महल अब नहीं है, परंतु उस वक्त के महलों के बाग के वृक्ष अब तक है, जो भगवान श्रीकृष्ण का आशीर्वाद है। महाराजा गोपालपाल के द्वारा दिल्ली की शाही इमारतों के ढंग पर लाल पत्थर से बनवाएं हुए महल बहुत सुंदर है। करौली रियासत में सबसे सुन्दर मंदिर "शिरोमणि का मंदिर" है, जिसे महाराजा प्रतापपाल ने बनवाया था। सबसे बड़ा मंदिर करौली रियासत में मदन मोहन का है, इस मंदिर की मूर्ति जयपुर के महाराजा जगतसिंह से महाराजा गोपालपाल लाए थे। इसके साथ ही करौली में केला देवी का सुंदर मंदिर भी है, जो एक पहाड़ी पर स्थित है। माता केला देवी करौली के जादौन यादव राजाओं की आराध्या देवी रही हैं।
1947 से पहले जब भारत आजाद नहीं हुआ था, तब करौली रियासत में कुल सेना 1136 सिपाहियों की थी। जिसमें 460 कवायदी (रेग्यूलर) और 676 बेकवायदी (इर्रग्यूलर) थी। कवायदी सेना में करीबन 91 घुड़सवार, 364 पैदल सैनिक, 56 तोपें और 25 गोलंदाज व तोपखाने के सिपाही है। इन सब सैनिक पर 16,600 रूपए का सालाना खर्च होता था। करौली रियासत में आज़ादी से पहले पुलिस की संख्या 216 थी।
करौली रियासत का राज्य-चिन्ह
करौली का राजवंश भारतवर्ष का प्राचीन राजवंश है, यह राजवंश यादव-वंशी राजपूतों में से हैं, जो चंद्रवंश की एक शाखा मानी जाती है। करौली रियासत की राजगद्दी को यदुवंशियों यानि भगवान श्रीकृष्ण के वंशजों की गद्दी मानी जाती है, और इनकी राजगद्दी यदुवंशियों में पाटवी या मुख्य समझी जाती है।करौली का राजवंश मथुरा की शूरसैनी यादव शाखा से निकला हुआ है। भगवान श्रीकृष्ण के दादा शुरसेन के नाम से मथुरा और उसके आसपास के प्रदेश का नाम "शूरसेन देश" पड़ा। श्रीकृष्ण ने राजा जरासंध के विरोध के कारण अपनी राजधानी मथुरा से द्वारिका ले गए और बाद में भगवान श्री कृष्ण की भेद नीति से जरासंध मारा गया, तो यादवों (राजपुत्र) ने फिर से अपना सिर ऊंचा किया और मथुरा में फिर से स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय करौली के यादव राजाओं का राज्य ब्रजदेश में बताया जाता है। समय-समय पर विदेशी आक्रमणकारी जैसे हुण-कुषाण, शक, सीथीयन्स इन्होंने यादवों राजपुत्रों से टक्कर ली परन्तु इन्हें यादवों राजपुत्रों की वीरता के सामने झुकना पड़ा।
महाराजा विजयपाल यादव (जादौन राजपूत) :-
करौली रियासत के मूलपुरुष महाराजा विजयपाल मथुरा के इसी जादौन यादव राजवंश के थे। यह अपनी राजधानी मथुरा से हटाकर पास की मान पहाड़ी पर ले आए और वहां एक बड़ा किला "विजय मंदिर गढ़" नाम से विक्रम संवत् 1067 में बनवा कर अपनी राजधानी स्थापित की। यही किला बाद में बयाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मथुरा से राजधानी हटाकर मान पहाड़ी पर राजधानी ले जाने का कारण यह था कि नया स्थान पर्वत श्रेणियों से घिरा होने के कारण आक्रमणों से सुरक्षित था। मथुरा की राजधानी समतल मैदान में थी, जिस कारण यह बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित नहीं थी। महाराजा विजयपाल बड़े वीर, पराक्रमी राजा थे। इन्होंने करीब 56 सालों तक राज किया था। महाराजा विजयपाल का भगवान श्रीकृष्ण से 89वीं पीढ़ी में होना माना जाता है। बयाना के किले में एक शिलालेख मिला है, जिसमें महाराजा विजयपाल को "महाराजाधिराज परम भट्टारक" लिखा है।
करौली की ख्यात में लिखा है कि महाराजा विजयपाल की मुठभेड़ गजनी के मुस्लिम सेना के साथ हुई थी, जिसमें इन्होंने मुसलमानों को पराजित किया था। महाराजा विजयपाल यादव ने अपने अंतिम समय में भगवान शिव के मंदिर जाकर अपना शीश अपने हाथों से ही काटकर महादेव को अर्पित किया था। महाराजा विजयपाल के साथ इनकी कई रानियां सती हुई थी। मुस्लिम सेना को जब पता लगा कि अब विजयपाल नहीं रहे तब इन्होंने आक्रमण कर बयाना के किले पर अधिकार कर लिया। महाराजा विजयपाल यादव के सबसे पुत्र तवनपाल यादव थे। पृथ्वीराज रासो से भी ज्ञात होता है कि 12वीं शताब्दी में बयाना और उसके आसपास के स्थान पर जादौन यादव राजपूतों का प्रबल प्रभाव था।
महाराजा तवनपाल यादव (जादौन राजपूत) :-
महाराजा तवनपाल यादव, महाराजा विजयपाल यादव के ज्येष्ठ पुत्र थे। करौली के राजाओं की वंशावली में इनका नाम मिलता है। बयाना के किले पर मुस्लिम सेना के अधिकार के बाद महाराज तवनपाल कुछ वर्ष तक गुप्त वेश में रहे और मौका मिलते ही यह बयाना आए और वहां एक सिद्ध योगी का आशीर्वाद लेकर बयाना से 15 मील दूर पहाड़ी पर अपने नाम से एक किला तवनगढ़ बनवाया, यही किला बाद में तिमनगढ़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। शिलालेखों में महाराजा तवनपाल की पदवी "परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर" लिखी गई है, इससे पता चलता है कि इन्होंने अपने राज्य का खूब विस्तार किया था। महाराजा तवनपाल जादौन यादव ने चम्बल नदी पर यदु की डांग नामक पहाड़ी प्रदेश को अपने अधिकार में किया और राजपूताने का पूर्वी भाग, जिसमें वर्तमान में अलवर राज्य का आधा हिस्सा तथा भरतपुर, धौलपुर, और करौली के राज्य तथा गुड़गांव व मथुरा से लेकर आगरा व ग्वालियर का कुछ भाग भी इनके राज्य में शामिल था, जिससे पता चलता है कि यह काफी महान पराक्रमी महाराजा थे। महाराजा तवनपाल यादव के दो पुत्र थे, एक तो धर्मपाल था जो की रानी से था, लेकिन दूसरा हरपाल था जो महाराजा तवनपाल की पासवान से था। राजकुमार धर्मपाल भी एक वीर योद्धा थे, तो वहीं पासवानिया धर्मपाल की साहसी और वीर था। उसने गजनी के मुसलमानों से बदला लेने के लिए, जिन्होंने महाराजा विजयपाल जादौन यादव के समय बयाना के किले पर अधिकार किया था, इसका बदला लेने हरपाल ने गजनी के सुल्तान के घोड़े छीनकर तवनगढ़ ले आया था। इससे महाराजा तवनपाल जादौन यादव प्रसन्न हुए और तवनगढ़ का सारा कार्यभार हरपाल को सौंप दिया।
महाराजा तवनपाल यादव के बाद धर्मपाल राजा बने, इन्होंने धौलदरा नामक स्थान पर एक किला बनवाया और वहां रहने लगे वर्तमान में इस किले के स्थान को धौलपुर कहा जाता है।महाराजा धर्मपाल जादौन यादव पर मुसलमानों ने आक्रमण किया था जिसमें यह वीरगति को प्राप्त हुए। महाराजा धर्मपाल के बाद इनका पुत्र कुंवरपाल महाराजा बने, इन्होंने चंबल नदी के पास के स्थान पर एक कुंवरगढ़ नाम से एक किला बनवाया और वहां रहने लगे। बाद में कुंवरगढ़ पर मुसलमानों के आक्रमण के कारण वहां से अपने मामा के घर रीवां राज्य की तरफ जाना पड़ा। महाराजा कुंवरपाल के बाद सोहनपाल, नागार्जुन, पृथ्वीपाल, तिलोकपाल, विपलदेव, सासदेव, आसलदेव, गोकुलदेव हुए। गोकुलदेव के पुत्र महाराजा अर्जुनपाल हुए।
महाराजा अर्जुनपाल, अपने पिता गोकुलदेव के उत्तराधिकारी बने। महाराजा अर्जुनपाल अपने पैतृक राज्य को वापस लेने की इच्छा से यह अपनी चार रानियों सहित चंबल पर मंडरायल तहसील के नींदर गांव में पहुंचे। वहां इनको अपने पूर्वज भगवान श्रीकृष्ण के आशीर्वाद से जमींन में दबा हुआ बहुत सा धन मिला, जिससे इन्होंने आसपास के गांवों के पंवार राजपूत और अन्य राजपूत बंधुओं को अपनी सेना में भर्ती कर, आसपास के इलाके पर कब्जे कर लिया। इधर मंडरायल का मुस्लिम शासक मियां मक्खन एक मूर्ख तथा अत्याचारी शासक था, जिससे उसकी प्रजा उससे नाराज़ थी। तब महाराजा अर्जुनपाल ने मंडरायल की प्रजा को अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए मियां मक्खन पर एक दिन मौका पाकर आक्रमण किया और मियां मक्खन को मार कर स्वयं मंडरायल के शासक बन गए। धीरे-धीरे अर्जुनपाल ने सर-मथुरा के 24 गांवों बसाए और महाराजा तवनपाल के समय उनके अधिकार में जो भूमि थी, वो भूमि इन्होंने वापस अपने कब्जे में की। विक्रम संवत् 1405 में महाराजा अर्जुनपाल ने करौली का शहर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। जिस जगह करौली बसी हुई है, उस जगह पर महाराजा अर्जुनपाल ने एक दिन एक भेड़ को शेर(सिंह) से मुकाबला करते हुए देखा। इससे उस भूमि को वीरोचित समझ उन्होंने उस शेर को मार कर वहीं पर अपनी राजधानी कायम करने का निश्चय किया और जिस स्थान पर भेड़ शेर(सिंह) से मुकाबला कर रही थी, उस स्थान पर बना हुआ दरवाजा आज भी "सिंह वीर" नाम से प्रसिद्ध है। उस समय से लेकर आज तक करौली रियासत में भेड़ एक पूज्य जानवर समझा जाता है और उसको मारते नहीं है। महाराजा अर्जुनपाल जादौन यादव ने करौली में एक महल, एक बाग और शहर के पास धीरवास नामक पहाड़ी पर अपनी कुलदेवी अंजनी माता का मंदिर भी बनवाया और गढ़ाकोटा नामक किले का निर्माण नीदा की घाटी में करवाया। इसके अलावा महाराजा अर्जुनपाल ने भगवान कल्याणजी का मंदिर बनवाया, इस कल्याणजी के मंदिर के पीछे ही इन्होंने अपनी राजधानी का नाम कल्याणपुरी रखा और बाद में इसी कल्याणपुरी का अपभ्रंश होकर "करौली" हो गया।
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7 Comments
जादौन वंश का इतिहास बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया
ReplyDeleteबहुत सुंदर। जादौन राजपूत की शाखायें भी है क्या
ReplyDeleteYadav aur jadaun alag hai bhagvan krishana kshatriya the aur Nand baba yadav
ReplyDeleteAhir
Deleteऐसा नहीं हैं, महाराज यदु के वंशजों को यादव कहा जाता था, आज जो यादव लिखते हैं वो अहीर हैं, जो की शुद्र हैं, गोप ग्वालो अहिरो ने 1910 मे यादव उपनाम लगाया |
DeleteAhir
ReplyDeleteTum pakka baman ho or raj path karne ke liye yadavo ko chhota batana chah rhe. 😂😂
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