खंगारोत कच्छावों का इतिहास - History of khangarots kacchawa's

खंगारोत कच्छावों का इतिहास, History of Khangarots
History of khangarots kacchawa's

 खंगारोत कच्छावों का इतिहास


आमेर नरेश पृथ्वीराजजी के एक पुत्र जगमाल जी थे। जगमाल जी का जन्म विक्रमी संवत् 1564 को हुआ था। इन्हें भाईबंट में साईवाड़ ठिकाना मिला था। जगमाल जी का एक विवाह उमरकोट में सोढ़ो के यहां हुआ था इनकी कुँवरानी का नाम आसलदे था जिसने अपने नाम पर आसलपुर बसाया। जगमाल जी ने साईवाड़ दान में दे दिया था इसलिए इन्होंने अपनी कोटड़ी आसलपुर में बनाई तथा डूंगर पर किला बनवाया। जब इनके पिता आमेरनरेश पृथ्वीराज जी राणा सांगा के साथ बाबर से युद्ध करने गये थे तब ये भी उनके साथ थे।

जब बादशाह हुमायूं शेरशाह सूरी से हारकर सिन्ध में भाग गया था तब उमरकोट के शासक को कहकर जगमाल जी ने उसे वहां शरण दिलवाई थी। 1562 ईस्वी में जब आमेर के राजा भारमल जी ने मुगलों की अधीनता स्वीकार की थी तब जगमाल जी भी उनके साथ में थे।  जगमाल जी को बादशाह के सामने जब पेश किया गया तब बादशाह ने जगमाल जी को मनसब प्रदान कर उन्हें जागीर में नराणा ठिकाना दिया। ई. 1563 में बादशाह अकबर ने जगमाल जी को मेरठ का किलेदार बनाया था। बादशाह के तीसवें शासनकाल में ई. 1586 में इन्होंने टांडा में नोरोज बेग से मुकाबला किया वहां यह वीरगति को प्राप्त हुए थे। जगमालजी की स्मृति में आसलपुर में छतरी बनी हुई है।

जगमाल जी के पांच पुत्र थे जिनमें खंगार जी सबसे बड़े पुत्र थे, जगमाल जी की मृत्यु होने पर पर यह नराणां के स्वामी हुए। इन्हीं खंगार जी के वंशज खंगारोत कच्छावा कहलाते हैं। गुजरात पर जब बादशाह अकबर ने प्रथम आक्रमण किया था, तब खंगार जी बादशाह अकबर के साथ थे। बादशाह अकबर ने जब गुजरात पर दूसरी बार आक्रमण किया था तब राजधानी का प्रबन्ध राजा भारमाल जी को सौंपा गया था। इब्राहिम हुसैन मिर्जा गुजरात में हारने के बाद नागौर होता हुआ दिल्ली की तरफ बढ़ा। राजा भारमल ने खंगार जी को सेना देकर भेजा खंगार जी के जाने पर इब्राहिम हुसैन वहां से भाग गया। खंगार जी की सेना कांगड़ा भेजी गई जिसके साथ वे भी गये। जब इब्राहिम हुसैन मिर्ज़ा ने पंजाब में उत्पात मचाया तब कांगड़ा की सेना उसको दबाने को भेजी गई। खंगार जी भी उस सेना में थे। मुलतान आदि स्थानों पर उससे युद्ध हुए, अन्त में इब्राहिम हुसैन मिर्जा पकड़ा गया। बादशाह ने हुक्म भेजा कि इब्राहिम हुसैन मिर्जा को बादशाह के सामने हाजिर किये जावे। परन्तु युद्धों में उसके इतने घाव लगे थे कि रास्ते में ही वह मर गया। हल्दीघाटी के युद्ध में खंगार जी मानसिंह के साथ थे। गागरोन के खीचियों के विरुद्ध भी खंगार जी गये थे। बादशाह ने जब पटना पर हमला किया तब भी खंगार जी साथ में थे। जब बूंदी के राव सुरजन हाड़ा के पुत्र दूदा ने बगावत की, तब खंगार जी को सेना देकर उनके विरुद्ध भेजा गया था। खंगार जी ने दूदा हाड़ा का झंडा छीन लिया था तथा बादशाह अकबर को पेश किया। बादशाह ने वह झंडा खंगार जी को बख़्श दिया। तब से खंगारो का वही झंडा है। यह लाल रंग का है तथा इसमें सुनहरी फूल है। फिर खंगार जी को शाहबाज खां के साथ बंगाल में तैनात किया गया। जब बादशाह पंजाब में गये थे तब खंगार जी उनके साथ में ही थे।

खंगार जी ने कुछ मुसलमान बनाई हुई स्त्रियों को वापस हिन्दू बनाया था। नराणां के अलावा पुरमांडल भी इनकी जागीर में था। इनका मनसब 2000 तक हो गया था। उनकी मांडलपुर में मृत्यु होना मानते हैं। इनकी 7 रानियां इनके साथ में ही सती हुई थी। खंगार जी के पन्द्रह लड़के थे।

उनके नाम इस प्रकार है- 1. नारायणदास नराणां 2. राघोदास धाणा 3. बैरसल गुढ़ा 4. मनोहरदास जोबनेर 5. बाघसिंह कालख 6. बुधसिंह 7. हम्मीरसिंह धाधोली 8. भाखरसिंह साखूण 9. किसनदास तूदेड़़ 10. अमरसिंह पानव 11. केशोदास मोरड़़ 12. सबलसिंह सीलावत 13. गोविन्ददास 14. तिलोकसिंह कमाण 15.बिहारीदास।

खंगार जी के बड़े पुत्र नारायणदास जी उनके बाद नराणां के स्वामी हुए, नारायणदास के एक पुत्र को  सोड़ावास ठिकाना मिला था। नारायणदास के तीसरे पुत्र गिरधर को छोटी मनसब मिल गई थी। इसके पुत्र करण के वंश में गागरडू की जागीर थी। नारायणदास के बड़े पुत्र दुर्जनसाल ने नरूकों से रहलाणा विजय किया था। इनके वंश में रहलाणा और हरसोली ताजीमी ठिकाने थे। विक्रमी संवत् 1820 में हरसोली का गोरधनसिंह मनसबदार था।  नराणा के राजा भोजराज के पुत्र गोपीनाथ और हरिसिंह थे। महाराजा सवाई जयसिंह जी ने नराणा का ठिकाना राजा शिवसिंह से छीन लिया था। तब हरीसिंह को कालख जागीर में दी गई थी तथा उसे अपना जागीरदार बना लिया। जयपुर के मुसाहिब राव दौलतराम हलदिया ने कालख पर हमला किया था। वहां के स्वामी बैरीसाल युद्ध करके मारे गये और कालख पर जयपुर का कब्जा हो गया। बाद में कालख वालों को खंडेल एवज में दिया गया था, खंडेल ताजीमी ठिकाना था। वि. सं. 1897 में खंडेल के ठाकुर किशनसिंह ने कालख के किले पर कब्जा कर लिया था। बाद जयपुर के रेजीडेन्ट थरसबी और लिछमणसिंह फौज लेकर कालख पर गये और कालख को जीतकर जयपुर का अधिकार करवा दिया। 

खंगार जी के तीसरे पुत्र बैरसल को गुढ़ा दिया गया था। अजमेर के मुहम्मद मुराद ने जब नराणा पर हमला किया तब खंगार जी का पुत्र बैरसल युद्ध करके काम आया था। बैरसल का पुत्र केसरीसिंह नाथावतों के युद्ध में काम आया था। बैरसल के पुत्र उगरसिंह ने उगारियावास बसाया था। उसके वंश में उगरियावास का ठिकाना था। यह ताजीमी ठिकाना था। उगरियावास के ठाकुर गजसिंह के छोटे पुत्र पहाड़सिंह के वंश में गुढा ठिकाना था। उगरियावास के गजसिंह के तीसरे पुत्र नाथजी के वंश में नवाण का ठिकाना था।

खंगारजी के चौथे पुत्र मनोहरदास जी को जागीर में जोबनेर मिला था। इनके वंशज मनोहरदासोत कहलाते हैं। मनोहरदास का छोटा पुत्र प्रतापसिंह मंढा ठिकाने का स्वामी हुआ। मंढा ताजीमी ठिकाना था। मंढा के ठाकुर गोकुलदास के पुत्र सदाराम के वंश में भादवा था। मंढा का ठाकुर भीमसिंह बड़ा प्रतापी था। विक्रमी संवत 1885 में वह रामगढ़ के लाड़खानियों की मदद पर गया था, जिनका मेड़तियों से युद्ध हो रहा था। उस युद्ध में भीमसिंह घायल हुआ। वह मंढा के दौलतसिंह के पुत्र स्योनाथसिंह के वंश में ड्योढ़ीदार था। मनोहरदास के द्वितीय पुत्र प्रतापसिंह के वंश में मंढा और भादवा ताजीमी ठिकाने थे। खास चौकी के ठिकाने डोडी, कोठी प्रतापपुरा, दयालपुरा, जैसिंहपुरा, सिरानोड़ियां आदि थे। भादवा के डॉ. शम्भूसिंह राजस्थान यूनिवर्सिटी में हिन्दी विभाग में पढ़ाते हैं। यह राजस्थानी साहित्य के बड़े अच्छे विद्वान हैं। इन्होंने कुछ पुस्तकों का सम्पादन भी किया है। मनोहरदास की मृत्यु होने पर उनके ज्येष्ठ पुत्र जैतसिंह को जागीर में जोबनेर मिला था।  जैतसिंह को छोटा मनसब मिला हुआ था।

यह जोबनेर की ज्वाला माई का परम भक्त था, ज्वाला माई का यह शक्तिपीठ बहुत प्राचीन है।  जैतसिंह पर जब अजमेर से मुराद ने चढ़ाई की तो जैतपुर में जैतसिंह ने मुगल सेना का मुकाबला किया। यह युद्ध ई. 1649 में हुआ था, इस युद्ध में मुराद मारा गया था। खंगारोतों ने साम्भर तक मुगल सेना का पीछा किया था। इस युद्ध में ठाकुर जैतसिंह का पुत्र कल्याणसिंह और उसके भाई सुजानसिंह का पुत्र विजयसिंह काम आये थे। जोबनेर के ठाकुर बनेसिंह अपने तीन पुत्रों रामसिंह, भारतसिंह और संग्रामसिंह सहित मावंड़ा के युद्ध में काम आये थे। ई. 1794 में जब रावबहादुर दौलतराम हल्दिया ने खंगारोतों पर हमला किया तब जोबनेर का ठाकुर देवीसिंह लड़कर मारा गया था। उसके बाद जोबनेर, भोजपुर, चिनोटिया, मुड़ा, डोडी, कोढ़ी परतापपुरा, सिंधपुरा, जैसिंहपुरा आदि खंगारोतों के ठिकाने खालसा कर दिए गये थे। मेड़ता के पास डागावास के युद्ध में ठा. भैरूसिंह जोबनेर जयपुर की ओर से वीरता से लड़े थे। उस पर प्रसन्न होकर जयपुर के महाराजा जगतसिंह जी ने ई. 1812 में जोबनेर आदि ठिकाने वापस खंगारोतों को बक्श दिए। उम्मेदसिंह जोबनेर ने सेरपुरा के युद्ध में अच्छी वीरता दिखाई थी। ठाकुर करणसिंह जोबनेर बड़े प्रगतिशील व्यक्ति थे। उन्होंने जोबनेर में एंग्लों वैदिक स्कूल प्रारम्भ किया। उन्होंने वहां आर्य समाज की स्थापना की थी। वे कवि भी थे। इनके पुत्र ठाकुर नरेन्द्रसिंह जोबनेर महाराजा सवाई मानसिंह जी द्वितीय की नाबालगी में कौंसिल मेम्बर बने। ये एज्यूकेशन मिनीस्टर बने थे। महाराजा सवाई मानसिंह जी की सिल्वर जुबली में इन्हें रावल का व्यक्तिगत खिताब मिला था। इन्हें इतिहास का बड़ा ज्ञान था। इन्होंने कई किताबे भी लिखी हैं तथा ये डिंगल के उच्च कोटि के कवि भी थे। जोबनेर के विजयसिंह के पुत्र भोपालसिंह के वंश में चोसला था। मनोहरदास के पुत्र रतनसिंह के वंश में आसलपुर का ठिकाना था।

खंगार जी के आठवें पुत्र भाखरसिंह को भाईबंट में साखूण मिला था। भाखरसिंह वीर था। वह जोधपुर की सेवा में भी रहा था। उसका बड़ा पुत्र बद्रीदास साखूण का स्वामी हुआ। बद्रीदास मिर्जा राजा जयसिंह जी की सेवा में था। उसके दूसरे पुत्र भीवसिंह के वंश में पाडली था। विक्रमी संवत 1890 में मानसिंह पाडली को 500 घोड़ों का रिसाला सौंपा गया था। मनरूपसिंह साखूण के पुत्र कुशलसिंह के वंश में सावड़दा था। साखूण के ठा. श्यामसिंह महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। यह पहले आमेर के राजा रामसिंह जी की सेवा में थे। ई. 1687 में हरीसिंह लामा और श्यामसिंह, राजा रामसिंह जी की नौकरी छोड़कर चले गये। महाराजा सवाई जयसिंह जी ने जब नराणां पर जयपुर का अधिकार किया था, तब श्यामसिंह को जागीर दी गई थी। इन्होंने आमेर-आगरा के युद्ध में बड़ी वीरता दिखाई थी। जयसिंह जी के समय में आमेर पर अधिकार करने में इन्होंने महत्वपूर्ण भाग लिया था। श्यामसिंह को वि. सं. 1802 में महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह ने   मनोहरपुर का फौजदार बनाया था। श्यामसिंह के छोटे पुत्र बुधसिंह के पांच पुत्र थे जिनके वंशों में पांच ठिकाने थे:-
1. बनेसिंह का ठिकाना विचूण 2. अणदसिंह का ठिकाना दूदू 3. भावसिंह का ठिकाना मरवा 4. जसवंतसिंह का ठिकाना छिर्र और 5. अनूप सिंह का ठिकाना पचेवर।

साखूण के ठाकुर श्यामसिंह के पोते ज्ञानसिंह के छोटे पुत्र दलेलसिंह के वंश में सेवा का ठिकाना था। सेवा ठिकाने के करणसिंह ने मेवों के विरुद्ध युद्ध में बड़ी वीरता दिखाई थी। श्यामसिंह के छोटे पुत्र बुधसिंह को जागीर में बिचून मिली थी। इसने आमेर की तरफ से आगरा के युद्ध में वीरता प्रदर्शित की थी। इसके पुत्र बनेसिंह को ज्वारसिंह भरतपुर के मुकाबले में राव दलेलसिंह धूला ने आगरा भेजा था। इसने 500 घोड़ों से गंगवाना में भरतपुर की विशाल सेना का मुकाबला किया तथा वह वीरतापूर्वक लड़ता हुआ रणखेत रहा। इसकी टोली के भीषण आक्रमण से भरतपुर की सेना भी विचलित हो गई थी और जवाहरसिंह ने जयपुर आने का विचार छोड़कर उत्तर की ओर से भरतपुर का रास्ता लिया। बिचून के ठा. वैरीसाल को वि. सं. 1822 में सीकर के रावराजा लक्ष्मणसिंह के विरुद्ध सीसू के गढ़ को विजय करने को भेजा था। दूसरे वर्ष जब गवर्नर जनरल कलकत्ता से दिल्ली आये। तब जयपुर महाराजा ने उनसे मिलने को श्यामसिंह शेखावत बिसाऊ और बैरीसालसिंह बिचून को दिल्ली भेजा था।

बुधसिंह के पुत्र अणदसिंह को महाराजा सवाई माधोसिंहजी प्रथम ने दूदू का ठिकाना बख्शा था। अणदसिंह का पुत्र पहाड़सिंह बड़ा वीर व प्रभावशाली व्यक्ति था। इसने करणसिंह हमीरदे को मारकर माधोराजपुर फतेह किया था। तुंगा के युद्ध में ये जयपुर की घुड़सवार सेना का संचालन कर रहे थे। माधोजी सिन्धिया पर जब रिसाले का हमला हुआ तो उसमें ये घायल हुए थे। जयपुर की ओर से फतहपुर में जॉर्ज टोमस से युद्ध करते हुए ये काम आये थे। पहाड़सिंह के छोटे पुत्र कीरतसिंह के वंश में साली का ठिकाना था। वि. सं. 1891 में साली का ठा. नवलसिंह जयपुर के पंच मुसाहिबों में था। ठा. भानुप्रतापसिंह दूदू सन् 1952 में राजस्थान विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए थे। बुधसिंह के पुत्र जसवन्तसिंह के वंश में छिर्र का ठिकाना था। छिर्र का जसवंतसिंह मावंड़े के प्रसिद्ध युद्ध में काम आया था। बुधसिंह के एक पुत्र भावसिंह के वंश में मरवा का ठिकाना था। बुधसिंह का पुत्र अनोपसिंह खंडार का किलेदार था। महाराजा सवाई माधोसिंह जी के समय में मराठों ने रणथम्भौर के मुगल किले का घेरा डाला था। किले वालो के पास रसद खत्म हो गई थी तथा दिल्ली से मदद नहीं आ रही थी। रणथम्भौर के किलेदार मिर्जा ने अनोपसिंह से कहलाया कि अगर आप आ जाये तो हम किला जयपुर को सौंप देंगे। इस पर जयपुर से पूछे बगैर ही अनोपसिंह खंगारोत और रघुनाथसिंह राजावत सेना सहित वहां पहुंचे। उन्होंने वहां मुगलों की सेना से मिलकर मराठों की चौकियों पर हमला किया। मराठे हार कर भाग गए। अनोपसिंह किले में गये और बादशाही किलेदार ने रणथम्भौर का किला इन्हें सौंप दिया। जयपुर वाले इस किले को लेने के लिए बड़ी कोशिश में थे। इस तरह यह प्रसिद्ध किला उन्हें आसानी से ही मिल गया। इस पर महाराजा सवाई माधोसिंह जी ने वि. सं. 1816 में अनूपसिंह को पचेवर की ताजीमी जागीर और रणथम्भौर किले की किलेदारी दी।

खंगार जी के पुत्र भाखरसिंह के दूसरे पुत्र अजबसिंह का पौत्र हरीसिंह बड़ा प्रसिद्ध व्यक्ति हुआ था। हरीसिंह ने लाम्बा बसाया जो आज भी हरीसिंह का लाम्बा कहलाता है। पहले यह आमेर के राजा रामसिंह की सेवा में था। हरीसिंह राजा रामसिंह जी की नौकरी छोड़कर काबूल से वापस आये थे। अजमेर के सूबेदार सिपहदार खां को जब यह मालूम हुआ, तब उसने हरीसिंह को वहां बुलाकर वहां का प्रबन्ध इन्हें सौंपा और हरीसिंह को 500 जात 200 सवार का मनसब दिया। दुर्गादासजी राठौड़ ने जब शाही इलाके मालपुरा पर हमला किया, तब हरीसिंह के पुत्र गजसिंह ने उनका मुकाबला किया गजसिंह के मनसब में इजाफा हुआ। वैसे हरीसिंह के दुर्गादास जी राठौड़ से अच्छे सम्बन्ध थे। राजा विष्णुसिंह जी आमेर को बादशाह ने जाटों के विरुद्ध भेजा, तब हरीसिंह की नियुक्ति उनके साथ हुई। महाराजा विष्णुसिंह जी ने हरीसिंह को 5 हजार सवार व 5 हजार पैदल सैनिक देकर कासोढ़ के किले पर भेजा जिसे उन्होंने फतह किया। वि. सं. 1746 में हरीसिंह ने बुकना जाट और गजसिंह नरूका को परास्त किया था। इस समय कुछ नरूके जमना के पूरब में बस गये थे। वे मुगलों के विरुद्ध लड़ रहे थे तथा जाटों को मदद किया करते थे। जब हरीसिंह ने बड़ौद के किले को फतह किया तब राजा विष्णुसिंह जी ने उन्हें हाथी, सिरोपाव, घोड़ा व तलवार भेंट की थी। टंड के किले में हरीसिंह ने नरूकों को परास्त किया था। वि. सं. 1749 को जाट युद्ध के समय राजा केशरीसिंह खंडेला ने हरीसिंह लाम्बा को घोड़ा व सिरोपाव दिया था। वि. सं. 1752 में ज्वार की गढ़ी का घेरा चल रहा था तब हरीसिंह को तोप के गोले की लगी और घायल हो गए। जब किले के विजय की खबर इन्हें सुनाई गई तब इनके प्राण छूट गये। 

 हरिसिंह के समय डिग्गी 22 गांवों के साथ नरूकों के अधिकार में थी। हरीसिंह के छोटे भाई विजयसिंह को बाद में डिग्गी मिली थी। विजयसिंह के वंश में महन्दवास का ठिकाना भी था। हरीसिंह का बड़ा पुत्र गजसिंह हरीसिंह की मौजूदगी में ही मर गया था, इसलिये उसके बाद उसका छोटा पुत्र अमरसिंह उसका उत्तराधिकारी बना और उसे हिण्डौन, भुसावल और उदई की फौजदारी मिली। बाद में अमरसिंह ने महाराजा सवाई जयसिंह जी की ओर से रामचन्द्र के साथ मिलकर आमेर के फौजदार हुसैन खां को परास्त करके आमेर से मुगल खालसा उठाया था। महाराजा सवाई जयसिंह जी ने जोधपुर से अमरसिंह को शाबासी का रुक्का भेजा था। महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह जी व माधोसिंहजी के जब युद्ध हुए, तब खंगारोत महाराजा सवाई ईश्वरीसिंहजी को छोड़कर माधोसिंह जी की तरफ हो गये थे। जगतसिंह लाम्बा, ग्यानसिंह साखून, जालमसिंह और पहाड़सिंह बगरू के युद्ध के समय 1500 घोड़ों से माधोसिंह जी से जाकर मिल गये थे। महाराजा सवाई माधोसिंह जी ने राजा बनने पर नरूकों के ठिकाने सावड़दा, गागरडू, रहलाना आदि ठिकाने छिनकर खंगारोतों को प्रदान किए थे।

खंगारोतों ने जयपुर की मदद से सुंदरदास नरूका से सावड़दा विजय किया था। जगतसिंह के पुत्र कल्याणसिंह को वि. सं. 1817 में लाम्बा की जगह डिग्गी बख्शी गई जो उस समय नरूकों के पास थी। करणसिंह डिग्गी मुसाहिब था। इसका पुत्र मेघसिंह भी मुसाहिब था। वह काफी शक्तिशाली था। इसके बाद भीमसिंह, प्रतापसिंह, देवीसिंह अमरसिंह और संग्रामसिंह सात पीढ़ी तक मुसाहिब आदि बनते आये। संग्रामसिंह बड़े धार्मिक थे। डिग्गी ठा. नारायणसिंह 1957 में राजस्थान विधानसभा के सदस्य बने थे। डिग्गी का ठिकाना खंगारोतों का सबसे बड़ा व महत्व का ठिकाना था। भाखरसिंह के छोटे पोते भीमसिंह के वंश में मुडया व लम्बा आदि के ठिकाने थे।


वि. सं. 1777 में बादशाह मोहम्मद शाह की मदद पर महाराजा सवाई जयसिंह जी ने सैयदों के विरुद्ध सेना भेजी थी। उसमें बहादुरसिंह खंगारोत भी शामिल था। वि. सं. 1818 में नाथूसिंह खंगारोत ने कोटा के युद्ध में वीरता दिखाई थी। वि. सं. 1824 में जगरामसिंह खंगारोत विशालसिंहका जाटों के युद्ध में काम आया था। वि.सं. 1825 में विचित्रसिंघ खंगारोत को ताजीम बख्शी गई थी। उसका पिता भी जाटों के युद्ध में काम आया था। वि. सं. 1870 में भावसिंह सिणोदया को मनसब मिला था।

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