Hindushahi Rajput Vansh
राजपूत क्षत्रिय शाही राजवंश - Rajput Kshatriya Shahi Rajvansh History
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Rajput Kshatriya Shahi Rajvansh History |
राजपूत क्षत्रिय शाही राजवंश
Rajput Kshatriya Shahi Rajvansh
650-876 ई. के मध्य काबुल और जाबुल के दोनों भारतीय राज्यों ने अरब के मुसलमान आक्रमणकारियों का सफलता से सामना किया था। अरबों के आक्रमण के समय इन राज्यों का एक वीर सामन्त था जिसका नाम रणबल था उसने अरबों के आक्रमणों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया था। उसके द्वारा देश व धर्म रक्षा में योग्य नेतृत्व, बहादुरी और शौर्य के किस्से पूरे अरब देश और मध्य एशिया में प्रसिद्ध हो गए थे।
काबुल और जाबुल राज्य पर पहले तो तिब्बत मूल का तुर्की शाही वंश का राजा लागातुर्मन राज्य कर था। परन्तु 865ई. में लागातुर्मन के एक कल्लार नाम के एक मंत्री ने राजा को पदच्युत करके हिन्दू शाही वंश का आरंभ किया जो कि एक क्षत्रिय राजपूत वंश था। 870 ई. में एक याकूब नाम के तुर्क डाकू ने कपट और मित्रद्रोह द्वारा शाही वंश का काबुल और जाबुल से अधिकार समाप्त कर दिया। जाबुल राज्य तो समाप्त हो गया परन्तु काबुल का हिन्दू शाही वंश अपनी नई राजधानी उदभाण्डपुर से राज्य करने लगा। इस देश ने 60 वर्ष 4 पीढ़ी तक लगातार देश व धर्म की रक्षा की।
963 ई. में खुरासान के सूबेदार अलप्तगीन गजनी के सुल्तान अबू लवीक को हटा कर स्वयं गजनी का सुल्तान बन गया। यहां से गजनवी वंश की शुरूआत हुई।
इसी वर्ष में अल्प्तगीन के सेनापती सुबुक्तगीन ने मुल्तान और लमधान सिंघ पर आक्रमण किया जिसका सामना उदभाण्डपुर के राजा जयपाल शाही ने किया और तुर्कों की सेना को रोक दिया।
इसी वर्ष अलप्तगीन की गजनी में मृत्यु हो गई। उसका पुत्र इसहाक जब सुल्तान बना तो पूर्व के अपदस्थ सुल्तान लवीक ने राजा जयपाल की सहायता से इसहाक को भगा दिया और लवीक गजनी का सुल्तान बन गया। परन्तु कुछ समय बाद इसहाक ने लवीक को फिर हटा दिया और इसहाक सुल्तान बन गया ।
इसहाक की मृत्यु 966 ई. में हुई और फिर दस वर्ष इसहाक के सेनापति बल्तगीन ने 975 ई. तक शासन किया। उसके बाद 977 ई. में सुबुक्तगीन सुल्तान बना इस समय उदभाण्डपुर के शाही राजवंश की सीमा लमधान से चिनाब नदी तक फैली थी।
987 ई. में सुबुक्तगीन ने राजा जयपाल के राज्य के पहाड़ी दुर्गों पर अधिकार कर लिया। जयपाल ने गजनवी के विरूद्ध अभियान शुरू किया और वह लमधान और गजनी के बीच आ खड़ा हुआ । सुबुक्तगीन अपने पुत्र महमूद के साथ आया और दोनों और से युद्ध शुरू हुआ जो कई दिनों तक चला।
अचानक भारी तूफान और बर्फबारी हुई जिसके कारण दोनों पक्षों में संधी हो गई। जब जयपाल के पास गजनी के अधिकारी संधी की रकम लेने आए तो उसने संधी तोड़ कर सुबुक्तगीन के अधिकारियों को बन्दी बना लिया। गजनी में जब यह समाचार पहुंचा तो सुबुक्तगीन सेना लेकर जयपाल के विरूद्ध चला और मार्ग के मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवाई।
जयपाल को जब यह ज्ञात हुआ तो वह भी ससैन्य चला और उसे आसपास के राजाओं ने भी सहायता दी जयपाल के पास विशाल सेना हो गई। अब दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ और शाम होते - होते भारतीय सेना हार गई। सुबुक्तगीन ने लमधान को गजनी राज्य में मिला लिया। इसके बाद 10 वर्ष तक गजनी के सुल्तानों ने राजा जयपाल पर कोई आक्रमण नहीं किया।
महमूद गजनवी का राजा जयपाल पर आक्रमण
महमूद गजनवी 15 हजार सेना लेकर पेशावर नगर के बाहर शिविर लगा कर युद्ध के लिए तैयार हुआ। राजा जयपाल भी 12 हजार घुड़सेना, 30 हजार पैदल और 300 हाथी लेकर आगे बढ़ा। राजा जयपाल और सेना आने की प्रतीक्षा में ही थे कि महमूद ने आक्रमण कर दिया ।यह युद्ध दोपहर तक चला और भारतीय सेना पराजित हो गई और लगभग 5 हजार सैनिक काम आए और राजा जयपाल अपने परिवार में 15 लोगों सहित बन्दी बना लिया गये। हालांकि क्षत्रियों ने एक बार शत्रुओं की सेना में हड़कंप मचा दिया परन्तु चालाक व धुर्त तुर्कों के सामने क्षत्रिय ज्यादा समय नहीं टिक पाए।
महमूद अब शाही राजवंश की राजधानी ओहिन्द की तरफ बढ़ा क्योंकि वहां के लोगों ने समर्पण नहीं किया था और वे पहाड़ों और जंगलों में जाकर अवसर ढूंढ रहे थे । महमूद ने राजधानी ओहिन्द पर अधिकार किया और गजनी लौट गया जहां जयपाल से 50 हाथी लेकर संधी हुई और उसे छोड़ दिया गया।
उन दिनों भारत में यह मान्यता प्रबल थी कि जो राजा मुसलमानों द्वारा बन्दी बना लिया गया हो या दो बार पराजित हो चुका हो तो वह अपने को अपवित्र मान कर अपने पुत्र को राज्य दे देता था और स्वयं अग्नि में जल कर मर जाता था ।
राजा जयपाल के बाद उसका पुत्र आनन्दपाल शाही राजवंश का राजा बना। राजा आनन्दपाल शाही ने राजधानी ओहिन्द से हटकर झेलम नदी के तट पर अपनी नई राजधानी नन्दना बनाई। 1006ई. महमूद गजनवी ने मुल्तान के अबुल दाऊद पर चढ़ाई की। क्योंकि सिंधु नदी में बाढ़ आई हुई थी इसलिए उसने राजा आनन्दपाल शाही से रास्ता देने की अनुमति मांगी। राजा आनन्दपाल ने अनुमति नहीं दी इस कारण महमूद गजनवी ने आनन्दपाल पर आक्रमण कर दिया। महमूद अपनी राजधानी गजनी से चल कर सिंधु तट पर आ पहुंचा। राजा आनन्दपाल की सहायता में उज्जैन के परमार, कालिन्जर के चन्देल, कन्नौज के प्रतिहार, दिल्ली के तोमर, कश्मीर के राजा और अजमेर के चौहान राजपूतों ने सेनाएं भेजी। राजा आनन्दपाल की सहायतार्थ पंजाब के 30 हजार खोखर राजपूत भी आए थे।
यह युद्ध सिंधु नदी के पूर्वी तट पर लड़ा गया था। राजा आनन्दपाल अपने पुत्र त्रिलोचनपाल के साथ रणभूमि में पहुंचे। 40 दिन तक दोनों सेनाएं आमने-सामने पड़ी रही। मुसलमानों ने अपनी सुरक्षा हेतु चारों और खाइयां खोद दी। इसके बाद महमूद ने अपने 6 हजार धनुर्धरों को आक्रमण का आदेश दिया। परन्तु वीर बहादुर खोखर राजपूतों ने उनके धावे को विफल करते हुए 5 हजार मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया । परन्तु भारत के भाग्य ने पलटा खाया और राजा आनन्दपाल को हाथी के नफथे की चोट लगी जिससे वह घायल और बैचेन होकर रणभूमि से निकल गये। राजा को इस हाल में देख कर क्षत्रिय सेना को लगा कि राजा आनन्दपाल रणभूमि से पलायन कर चुके हैं और इस कारण सेना भी युद्ध से निकल भागी। 6 हजार अरबी, 10 हजार तुर्क व अफगानी और ख़िलजी मुसलमानों ने भारतीय सेना का दिन-रात पीछा किया और 20 हजार भारतीयों को माल डाला। महमूद गजनवी ने आनन्दपाल की सेना का पीछा करते हुए भीमनगर के दुर्ग को जा घेरा। भीमनगर की सेना तो आनन्दपाल की सहायतार्थ गई हुई थी पीछे दुर्ग में केवल ब्राह्मण ही थे, दुर्ग रक्षकों ने तीन दिन तक तो प्रतिरोध किया परन्तु बाद में उनको समर्पण करना पड़ा। भीमनगर के दुर्ग में महमूद गजनवी को अथाह धन दौलत व संपत्ति प्राप्त हुई, इसके साथ ही महमूद को चांदी का बना एक मकान प्राप्त हुआ। जून 1009 ई. में महमूद गजनवी वापस अपनी राजधानी लौट गया, जिसके बाद राजा आनन्दपाल ने अपनी राजधानी नन्दना में आकर आगे के संघर्ष की तैयारी शुरू कर दी परन्तु 1012 ई. में राजा आनन्दपाल की मृत्यु हो गई।
राजा आनन्दपाल शाही की मृत्यु के पश्चात उनका पुत्र राजा सुखपाल शाही राजा बने। राजा सुखपाल शाही ने एक रणनीति के अनुसार इस्लाम अपना कर अपना नाम नवासाशाह रखा और महमूद गजनवी ने उसे मुल्तान का सूबेदार बनाया। जब महमूद गजनवी इलकखां के विद्रोह को दबाने में व्यस्त हुआ तो राजा सुखपाल ने अपनी शक्ति को दृढ़ कर लिया और फिर राजा सुखपाल ने विद्रोह कर दिया और उन्होंने पुनः हिन्दू धर्म को अपना लिया और राजा सुखपाल ने महमूद के अधिकारियों को भी बाहर खदेड़ दिया। जब महमूद गजनवी को इस बात की सूचना मिली तो वह सुखपाल के विरुद्ध रवाना हुआ। राजा सुखपाल और महमूद गजनवी के बीच भीषण महासंग्राम हुआ, राजा सुखपाल शाही ने अपनी रणनीति तथा अपने युद्धकौशल से महमूद को परास्त कर दिया। महमूद गजनवी परास्त होकर कश्मीर के पहाड़ों की ओर भाग गया फिर वहां से वह अपनी राजधानी पहुंचा और शाही राजवंश के विरुद्ध आगे के संघर्ष के लिए तैयारियां शुरू कर दी। इसी बीच राजा सुखपाल की अपनी राजधानी नन्दना में मृत्यु हो गई, इसके बाद उनके भाई और राजा आनन्दपाल के पुत्र त्रिलोचनपाल शाही राजवंश के नए राजा बने।
इधर शाही राजवंश की राजधानी नन्दना पर राजा त्रिलोचनपाल शाही का राज्याभिषेक हुआ तो दूसरी ओर राजा सुखपाल से परास्त होकर भागा महमूद गजनवी ने त्रिलोचनपाल के विरुद्ध सैनिक अभियान आरंभ कर दिया। जब इस बात की सूचना राजा त्रिलोचनपाल को मिली तो उन्होंने अपने राजकुमार भीमपाल को नन्दना सौंपकर और अपने एक अनुभवी सेनापति को वहां नियुक्त कर वह स्वयं कश्मीर के राजा संग्राम सिंह से सहायता प्राप्त करने चल पड़े। जब महमूद की सेना नन्दना के पास पहुंची तो राजकुमार भीमपाल ने अपने सैनिकों और हाथियों की सहायता से पहाड़ की मर्गला घाटी को बन्द कर दिया और सैनिकों को पहाड़ों के ऊपर तैनात कर दिया। अब युद्ध शुरू हो गया और कई दिनों तक चलता रहा। तभी भीमपाल की सहायता में और सेना आ गई जिसके कारण उत्साहित होकर भीमपाल ने मैदानी युद्ध के लिए अपनी सेना को मैदान में उतार दिया।
इसके कारण तुर्कों को अपने घुड़सवारों की सेना के उपयोग का अवसर मिल गया, भीमपाल के हाथी जब आगे बढ़ते तो मुसलमान उन पर तीर चलाते । मुसलमानों का अग्रिम सेनापति भीमपाल की सेना से बुरी तरह घिर गया और वह घायल हो गया परन्तु उसकी सहायता में एक सैनिक दस्ता आया जो उसे बाहर निकाल ले गया।
इस प्रकार युद्ध चलता रहा और अन्त में भारतीयों की हार होने लगी। तब भीमपाल ने कुछ सेना नन्दना के दुर्ग में छोड़ी और स्वयं कश्मीर की ओर रवाना हो गया। महमूद की सेना ने नन्दना दुर्ग को जा घेरा और कुछ दिन तक संघर्ष चला परन्तु फिर दुर्ग रक्षकों ने समर्पण कर दिया। महमूद को दुर्ग में बहुमूल्य सम्पत्ति मिली ।
नन्दना जीत कर महमूद त्रिलोचनपाल के पीछे कश्मीर अभियान पर गया। कश्मीर के राजा संग्रामसिंह ने अपने मंत्री तुंग के साथ व त्रिलोचनपाल के साथ एक बड़ी सेना रवाना की। त्रिलोचनपाल सुरक्षात्मक युद्ध और पहाड़ी युद्ध चाहता था पर मंत्री तुंग घमण्डी था उसने छोटे से सैनिक दस्ते को लेकर तोही नदी पार की और महमूद के अग्रिम दस्ते को मार दिया।
त्रिलोचनपाल ने तुंग को फिर समझाया पर तुंग नहीं माना। अब महमूद ने स्वयं आक्रमण किया जिसके आगे तुंग हार गया परन्तु त्रिलोचनपाल फिर भी लड़ता रहा। त्रिलोचनपाल युद्ध में अकेला घिर गया था फिर भी वह अपने रणकौशल से घेरे के बाहर निकल आया। उसके साथ जयसिंह, श्रीवर्धन और विभ्रमार्क नाम के तीन वीर यौद्धा युद्ध करते रहे परन्तु आखिरकार महमूद जीत गया और शाही राजवंश का सारा राज्य उसके अधिकार में आ गया। त्रिलोचनपाल ने फिर भी हिम्मत रखी और उसने पंजाब के पूर्व में शिवालिक पहाड़ों मे हस्तिनापुर को अपनी नई राजधानी बनाई।
अब महमूद कालिन्जर के विद्याधर चंदेल के विरूद्ध गजनी से चला। मार्ग में उसने सरबल दुर्ग पर अधिकार कर लिया और वह राहब नदी के पश्चिमी तट पर आ पहुंचा। यह देखकर राजा त्रिलोचनपाल शाही ने उसे नदी पार नहीं करने दी परन्तु काफी प्रयासों के बावजूद अन्त में महमूद की सेना ने नदी पार कर ली। इसके बाद महमूद ने त्रिलोचनपाल पर आक्रमण किया। घमासान युद्ध के बाद महमूद जीत गया। बहुत से भारतीयों को उसने बन्दी बना लिया। जब त्रिलोचनपाल ने संधि का प्रस्ताव किया तो महमूद ने उसके सामने इस्लाम स्वीकार करने की शर्त रख दी जिसे राजा त्रिलोचनपाल ने अस्वीकार कर दिया तो उनकी हत्या कर दी गई और वह कालिन्जर के चन्देल राज्य की ओर निकल पड़ा ।
1026 ई. में त्रिलोचनपाल के पुत्र राजा भीमपाल भी संघर्ष करते हुए काम आये। गजनवी शासकों के आपसी झगड़ों और उनके प्रदेशों की अराजकता का लाभ उठा कर दिल्ली के तोमर राज कुमारपालदेव ने अन्य राजाओं से मिल कर मुसलमानों को हांसी क्षेत्र से मार भगाया। आगे बढ़ उन्होंने कांगड़ा दुर्ग को चार मास तक घेरे रखा और फिर मुसलमानों को मार कर वहां अधिकार कर लिया।
अब हिन्दू राजाओं ने जिनमें शाही राजवंश का राजकुमार सन्दपाल भी था, उन्होंने लाहौर जीतने हेतु सैनिक कूच किया। इस सेना ने लाहौर और तकेश्वर दुर्ग पर घेरा डाल दिया। मुस्लिम सेना तकेश्वर की रक्षा के लिए रवाना हुई जिसका भारतीय सेना ने सामना किया। क्षत्रियों ने शत्रुओं को परास्त कर दिया परन्तु रणक्षेत्र में एक तीरंदाज शत्रु का एक तीर राजकुमार सन्दपाल के आ लगा और वह शहीद हो गए। इस प्रकार 60 वर्ष तक देश व धर्म के लिए लड़ने वाला क्षत्रिय शाही राजवंश अमर हो गया।
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