History of Jaimalsar
जयमलसर के भाटी राजपूतों का इतिहास
History of Jaimalsar |
जयमलसर के भाटी राजपूतों का इतिहास
जयमलसर के भाटी सिरदारों का इतिहास बड़ा गौरवमयी रहा है और आज हम इसी जयमलसर ठिकाने के भाटी सिरदारों के इतिहास से आपको अवगत कराएंगे। जयमलसर के सिरदार खींया भाटी शाखा के है, जो अपने पूर्वज रावत खेमालजी अथवा खींवाजी के नाम से खींया भाटी कहलाते हैं। जयमलसर का ठिकाना बीकानेर रियासत के अंतर्गत आता है और यहां के भाटी सिरदारों की उपाधि 'रावत' है तथा बीकानेर रियासत की ओर से जयमलसर ठिकाने को इकलड़ी ताज़ीम और बांहपसाव के कुरबवाले सिरदार का सम्मान प्राप्त है। जयमलसर के भाटी सिरदारों का बीकानेर रियासत में काफी सम्मान है और समय-समय पर यहां के सिरदारों ने बीकानेर रियासत की ओर से युद्धों में शामिल होकर अपनी वफादारी साबित की है तथा साथ ही अपने रणकौशल से जयमलसर के सिरदारों ने सभी को अचंभित किया है। यहां के भाटी सिरदार जैसलमेर के महारावल केहर के वंशज हैं और आज मैं आप सभी को महारावल केहर से वर्तमान जयमलसर के रावत साहब यादव सिंह जी तक के इतिहास से अवगत करवाऊंगा।
जैसलमेर के महारावल केहर का ज्येष्ठ पुत्र केलण अपने समय का अत्यन्त शक्तिशाली, महत्वाकांक्षी और कुशल शासक हुआ। यद्यपि ज्येष्ठ होने के फलस्वरूप वह जैसलमेर राज्य की गद्दी का हकदार था परन्तु अपने पिता का कोप-भाजन होने के कारण उसे महारावल बनने का सौभाग्य नहीं मिला। उसने अपने बाहुबल और चतुराई से बीकमपुर, देरावर और पूगल पर अधिकार करने में सफलता पाई तथा एक पृथक् राज्य स्थापित करने के सपने को साकार किया। उसके वंशजों ने विरोधी शक्तियों से संघर्ष जारी रखते हुए राजस्थान के इतिहास में केलण भाटियों के नाम से अपनी अलग पहचान बनाई। राव केलण ने पिता की आज्ञा के बिना महेचा राठौड़ों में सगाई कर ली थी। इस पर महारावल केहर ने कुपित होकर उसे जैसलमेर से निकाल दिया और अपने छोटे बेटे लक्ष्मण को अपना उत्तराधिकारी बनाया। पहले केलण आसीणकोट में जाकर रहा। उसने विचार किया कि अधिक समय तक यहाँ महारावल उसे नहीं टिकने देंगे अतः दूसरी जगह अपना स्थान कायम करना चाहिए। महारावल के जीवित रहते हुए आस-पास के क्षेत्र पर अधिकार करना मुश्किल था। इसलिए महारावल केहर की मृत्यु होने पर उसने वीरान पड़े हुए बीकमपुर पर अपना कब्जा किया। बीकमपुर के कोट में वृक्ष और झाड़ियों की बहुलता थी, जिन्हें काटकर तथा जलाकर सफाई कराई गई और उन्होंने अपने रहने का स्थान वहीं कायम किया। इसी बीकमपुर स्थान से राव केलण का भाग्योदय हुआ। बीकमपुर पहले वैसे तो जैतुंग भाटियों के अधिकार में था। राव केलण ने बीकमपुर के बाद पुगल पर अपना अधिकार स्थापित किया और फिर देरावर पर भी उन्होंने अपना अधिकार जमा लिया। राव केलण ने अपनी शक्ति को बढ़ाकर योजनाबद्ध तरीके से मारोठ, मुम्मणवाहण और सतलज नदी पार कर केहरोर पर भी अधिकार कर लिया था। राव केलण का बहुत से स्थानों और गढ़ों पर अधिकार था इसलिए एक दोहा भी उनके लिए प्रचलित है:-
पूंंगल बीकंपुर, पुणवि, मूमणवाहण, मरोठ।
देरावर ने केहरोर, केल्हण इत्तरा कोट।।
राव केलण जी की मृत्यु के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र चाचगदे उनके उत्तराधिकारी हुए। चाचगदे ने अपने राज्य को सुदृढ़ करने का प्रयास किया। यह बड़े वीर योद्धा थे, इन्होंने मुल्तान के मुसलमानों से कई युद्धों में विजय प्राप्त की थी। चाचगदे ने अपने बाहुबल से कई सारे नगरों पर अधिकार कर लिया था और आसनीकोट नामक नया दुर्ग भी बनवाया था। जैसलमेर की तवारीख में राव चाचगदे के लिए लिखा है कि बादशाह मुहम्मदशाह का वजीर कालू जब मुलतान का शासक बना तो उस समय लंघाओं ने उससे निवेदन किया कि भाटियों ने हमारा बहुत-सा क्षेत्र दबा लिया है। तब वजीर कालू ने अपने सैनिक सहायता देकर राव चाचगदे पर आक्रमण करने के लिए अमीरखां लंघा को भेजा, अमीर खां लंघा ने चढ़ाई की परन्तु चाचगदे के बाहुबल से हार कर वह लौट गया। इसके बाद खुद वजीर कालू ने लंघा अमीरखां को साथ लेकर 29 हजार सेना के साथ चढ़ाई की। राव चाचगदे, जोहिया, पाहु, जैतुंग भाटियों आदि की 20 हजार सेना के साथ दुनियापुर में पहुँचे जहाँ घमासान युद्ध हुआ उसमें हजारों आदमी मारे गये और कालू खां भाग गया। चाचगदे की विजय हुई। उसने अपने कुंवर बरसल को वहाँ नियुक्त किया। जब इसकी सूचना जैसलमेर पहुँची तो महारावल लक्ष्मण ने उनके सम्मान में घोड़ा, तलवार, कटार, जेवर और सिरोपाव भेजे। चाचगदे ने सुमारखां की बेटी सोनल के साथ विवाह किया। कुछ समय पश्चात लंघाओं ने दुनियापुर के पांच हजार पशुधन को घेर लिया। इस पर चाचगदे ने चढ़ाई की। दोनों तरफ आदमी काम आये। ब्राह्मवेग मारा गया। पशुधन छुड़ा लिया गया। चाचगदे इस युद्ध के बाद बीमार हुए। तब उन्होंने अपने कुंवरों और प्रधानों को वसीयत करके युद्ध में वीरगति प्राप्त होने के उद्देश्य से मुलतान से कालू को चढ़ाई करने के लिये कहा। दुनियापुर से दो कोस पर युद्ध हुआ जिसमें राव चाचगदे काम आए। गढ़ मेथेला, मुम्मणवाहण, केहरोर व भटनेर उनके हाथ से निकल गये।
राव चाचगदे के बाद उनके पुत्र बरसल पुगल की गद्दी पर बैठे और अपने नाम पर बरसलपुर नामक एक नये कोट का निर्माण करवाया। राव बरसल अपने समय के शूरवीर योद्धा थे। राव बरसल के बाद उनके पुत्र राव शेखा पुगल की गद्दी पर बैठे और राज्य की बागडोर संभाली। राव शेखा, राव बीकाजी राठौड़ की तरह मां करणीजी की तरह अनन्य भक्त थे। राव शेखा ने अपनी पुत्री रंगकुंवरी का विवाह बीकानेर के संस्थापक राव बीकाजी के साथ किया था। राव शेखा के तीन पुत्र थे- हरा, बाघा तथा खेमालजी (खींवाजी)।
शेखाजी के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र हरा पुगल के स्वामी हुए और उनके द्वितीय पुत्र बाघाको हापासर सहित 140 गांव बंटवारे में मिले। इनके वंशज किसनावत भाटी कहलाए। शेखा जी के तीसरे पुत्र खींवाजी को बरसलपुर सहित 68 गांव मिले। इनके वंशज खींया भाटी कहलाए।
पुगल के राव शेखाजी के तीसरे पुत्र खेमालजी अथवा खींवाजी को बरसलपुर मिला हुआ था। खींवाजी ने बरसलपुर की सुरक्षा के लिए हरसंभव प्रयास किया था। अंत में 1543 ई. में मुल्तान की तुर्क सेना के विरुद्ध युद्ध करते हुए खींवाजी (खेमालजी) बरसलपुर में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। खींवाजी के साथ उनके पुत्र करणसिंह भी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे। रावत खींवाजी (खेमालजी) के बाद बरसलपुर की गद्दी पर उनके पुत्र जैतसी जी बैठे। कुछ समय पश्चात् पूगल के राव बरसिंह ने जैतसी जी को 'राव' की पदवी से सम्मानित किया। कुमार करणसिंह की मृत्यु के समय उनके पुत्र अमरसिंह की आयु केवल चार वर्ष की थी, रावत अमरसिंह से ही जयमलसर के भाटी सिरदारों का इतिहास आरम्भ होता हैं। अमरसिंह के पिता करणसिंह के पास नोखा और माणकासर गांवों की पैतृक जागीर थी। कुमार अमरसिंह का बाल्यकाल बरसलपुर में ही बीता, इस अवधि में मुसलमानों ने नोखा गांव पर अधिकार कर लिया था। यह युवा होने पर अपने पैतृक गांव माणकासर चले गए। अभी जयमलसर गांव नहीं बसा था। इनके दादा रावत खेमाल और पिता करणसिंह की सेवाओं और बलिदान के कारण, पूगल के राव बरसिंह ने अमरसिंह को 'रावत' की पदवी से सम्मानित किया और बरसलपुर की जागीर के 68 गांवों में से 27 गांव लेकर इन्हें प्रदान किए, बरसलपुर के पास शेष 41 गांव रह गए।
रावत अमरसिंह की मृत्यु के पश्चात् इनके ज्येष्ठ पुत्र सांईदास रावत बने। इन्होंने अंगणेऊ गांव बसाया। रावत सांईदास ने नोखा गांव पर आक्रमण करके मुसलमानों को पराजित किया और अपने पूर्वजों के गांव पर अधिकार कर लिया। इनके द्वारा यहां से निकाले गए मुसलमान मुलतान के नबाब से सहायता प्राप्त करने गए। सन् 1573 ई. में बीकानेर के राजा रायसिंह बादशाह अकबर के आदेश के कारण गुजरात के युद्ध में गए थे। उस समय उनके साथ में भाटियों की एक सैनिक टुकड़ी भी गई थी, जिसका नेतृत्व रावत सांईदास कर रहे थे। वहां मिर्जा मुहम्मद हुसैन के विरुद्ध युद्ध में रावत सांईदास मारे गए थे।
रावत सांईदास के चार पुत्र, जयमलसिंह, कानसिंह, केसुदास और गोपालदास थे। रावत सांईदास के छोटे भाई रामसिंह ने नांदड़ा और खजोड़ा गांव बसाए थे। रावत सांईदास की मृत्यु के पश्चात् इनके ज्येष्ठ पुत्र जयमलसिंह रावत बने। उस समय जयमलसिंह के सबसे छोटे भाई गोपालदास की आयु केवल तीन वर्ष की थी। नोखा से मुलतान गए हुए मुसलमान वहां से कुछ सैनिक सहायता लेकर वापिस नोखा आए और उन्होंने रावत जयमलसिंह पर आक्रमण किया। उस समय वर्तमान जयमलसर के पास में बहुत सी झाड़ियां में थीं। मुसलमानों की सेना की संख्या अधिक होने से रावत जयमलसिंह ने युद्ध से पहले महिलाओं और बच्चों को उन झाड़ियों में छिपा दिया था ताकि वह सब सुरक्षित रहे। इस युद्ध में रावत जयमलसिंह और उनके छोटे भाई कानसिंह मारे गए। बालक गोपालदास को खड़ेल राजपूतों की एक महिला ओडे में छिपाकर उनके ननिहाल अमरकोट सोढ़ाण ले गई। रावत सांईदास के वंश में यही एक कुमार बचे थे, इनके अन्य भाइयों के मरने से पहले सन्तानें नहीं हुई थीं।
जब रावत गोपालदास ननिहाल में रहकर जवान हुए, तब वह कुछ आदमियों और अपने साथी गोपालजी दहिया को साथ लेकर नोखा आए। नोखा गांव जयमलसर के पास पश्चिम में हैं। पूगलवालों ने इन्हें वहां ठहरने नहीं दिया। वहा कुछ संघर्ष हुआ, परन्तु रावत गोपालदास के साथ में आदमी कम थे, इसलिए वह उन पुरानी झाड़ियों में चले गए, जहां बाल्यकाल में इन्होंने शरण ली थी। क्योंकि यह रावत सांईदास के पुत्र और रावत जयमलसिंह के छोटे भाई थे, इसलिए स्थानीय जनता ने इनका साथ दिया। हालांकि यह सारा क्षेत्र इनके दादा रावत अमरसिंह की 27 गांवों की जागीर का भाग था। रावत गोपालदास ने उस क्षेत्र में एक कुआ खुदवाना आरम्भ किया। अब वह वहां अपने पांव मजबूत करने लग गए थे, स्थानीय जनता का सहयोग और सहानुभूति इन्हें मिल रही थी। कुआं बनकर तैयार होने पर पास पड़ोस के अनेक लोग काफी संख्या में वहां आकर बस गए। पूगल ने इन्हें वहां बसने नहीं देने की नीयत से इन पर आक्रमण किया। परन्तु अब इनकी स्थिति अच्छी थी। इस बार पूगल वाले इनके सामने नहीं टिके, इन्होंने डटकर विरोध किया। इसका बुरा परिणाम यह हुआ कि जयमलसर के भावी रावत पूगल से दूर रहे और अपने संरक्षण के लिए वह बीकानेर की अधीनता में चले गए।
रावत गोपालदास ने अपने दिवंगत बड़े भाई जयमलसिंह के नाम से, इस कुएं के पास बसे हुए नए गांव का नाम 'जयमलसर' रखा। दूसरे दिवंगत बड़े भाई कानसिंह के नाम पर, पास में पूर्व में 'कावनी' गांव बसाया।
रावत गोपालदास के देहान्त के बाद में इनके ज्येष्ठ पुत्र बीरमदेव रावत बने। गोपालदास के एक छोटे पुत्र चन्द्रसिंह बीकानेर के राजा रायसिंह की सेवा में रहते थे। राजा रायसिंह सन् 1608 ई. के आसपास में अपने छोटे पुत्र कुमार सूरसिंह के साथ बुरहानपुर (दक्षिण भारत) चले गए थे। चन्द्रसिंह भी इनकी सेवा करने वहां साथ गए। राजा रायसिंह का 12 जनवरी, 1612 ई. में वहीं देहान्त हो गया। देहान्त से पहले इन्होंने चन्द्रसिंह से आश्वासन लिया कि वह उनके पुत्र सूरसिंह की सेवा यथावत करते रहेंगे; लेकिन राजा रायसिंह की मृत्यु होते ही उनके ज्येष्ठ पुत्र दलपतसिंह विद्रोही हो गए थे। राजा दलपतसिंह और उनके छोटे भाई सूरसिंह के बीच में राजगद्दी के लिए बीकानेर में युद्ध आरम्भ हो गया। रावत बीरमदेव राजा दलपतसिंह की ओर से युद्ध लड़ रहे थे और इनके छोटे भाई चंद्रसिंह, सूरसिंह की ओर से युद्ध कर रहे थे, रावत बीरमदेव लड़ते हुए बहुत घायल हो गए थे, उन्हें बेहोशी की दशा में मरहम पट्टी के लिए किले में लाया गया। युद्ध में सूरसिंह विजयी हुए और वह बीकानेर के राजा बने। राजा दलपतसिंह को बन्दी बनाकर उन्होंने हिसार भेज दिया, जहां से उन्हें अजमेर लाया गया। घायल रावत बीरमदेव को राजा को नजर करने के लिए बुलाया गया, उन्हें यही बताया गया था कि विजय उनके राजा दलपतसिंह की हुई थी। परन्तु जब उन्होंने राजगद्दी पर सूरसिंह को बैठे देखा तो आवेश में उनके घाव खुल गए और उनका देहान्त हो गया। राजा सूरसिंह ने इनकी निष्ठा और स्वामीभक्ति का सम्मान किया।
उनके धारण किए हुए शस्त्र, ढाल, भाला, तीर, कबाण, गदा और बस्तर को आदरपूर्वक रखा गया। राजा सूरसिंह की आज्ञा से प्रत्येक दशहरा-दिवाली के उत्सव में रावत बीरमदेव के शस्त्रों के राजा स्वयं तिलक करके पूजा किया करते थे। यह राजा सूरसिंह द्वारा अपने विरोधियों के प्रति अपनायी गई स्वस्थ परम्परा थी।
रावत बीरमदेव की मृत्यु के बाद में राजा सूरसिंह ने उनके छोटे भाई चन्द्रसिंह को उनकी सेवाओं के कारण जयमलसर का नया रावत बनाया। साथ ही इन्हें बीकानेर राज के खालसे के सात गांव और देकर, ग्यारह गांवों की जागीर व ताजीम का सम्मान दिया गया। इसके साथ ही अब जयमलसर का बीकानेर राज में मान-सम्मान और प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी हुई। रावत चन्द्रसिंह, राजा रायसिंह की आज्ञा की पालना करते हुए, राजा सूरसिंह की सेवा में ही रहे।
राजा सूरसिंह के समय जयमलसर के भाटियों ने सन् 1616 ई. से उनके अनेक सैनिक अभियानों में साथ दिया। उन्होंने अद्भुत वीरता दिखाई और स्वामीभक्ति का परिचय दिया। इससे प्रसन्न होकर राजा ने रावत चन्द्रसिंह को सन् 1628 ई. में बीकानेर के सिलहखाने का प्रभारी नियुक्त किया। बीकानेर के किले के सारे अस्त्र-शस्त्र इनकी निगरानी और देखरेख में रहते थे। प्रत्येक दशहरे के त्यौहार पर बीकानेर के शासक इन शस्त्रों की पूजा करने के पश्चात् जयमलसर के रावतों की उनकी सेवाओं के लिए धन्यवाद देते थे और हाथ जोड़कर आदरपूर्वक याद करते जब इन रावतों ने बीकानेर के राठौड़ों का बुरे दिनों में साथ दिया था। बीकानेर के शासक जयमलसर के रावतों के उपकारों को भूले नहीं, यह उनका बड़प्पन था और यहां के शासकों की गरिमा के यह अनुरुप था। कुछ समय पश्चात् राजा सूरसिंह के विद्रोहियों ने रावत चन्द्रसिंह को मार दिया। रावत चन्द्रसिंह के बाद में इनके ज्येष्ठ पुत्र जगतसिंह रावत बने और उनके बाद में उनके ज्येष्ठ पुत्र मुकनदास रावत बने। रावत मुकनदास के ज्येष्ठ पत्र उदयसिंह थे।
एक बार बीकानेर के राजकुमार जोरावरसिंह और जयमलसर के कुमार उदयसिंह के बीच में किसी बात को लेकर तकरार हो गई थी। इसलिए कुमार उदयसिंह को दण्ड देने के लिए राजकुमार जोरावरसिंह सेना लेकर जयमलसर गए। उस समय महाराजा सुजानसिंह बीकानेर के शासक थे। कुमार उदयसिंह ने उस समय हार मान ली, जिससे झगड़ा टल गया। परन्तु उदयसिंह ने मन में बदला लेने की ठान ली। उन्होंने बीकानेर को जोधपुर से पराजित कराने का प्रण किया। नागौर के शासक बख्तसिंह राठौड़ की आंख बीकानेर पर पहले से ही लगी हुई थी। कुमार उदयसिंह भाटी ने नागौर जाकर बख्तसिंह से मिल कर षड्यन्त्र रचा। नापा सांखला के वंशज वंश-परम्परा से बीकानेर के किलेदार हुआ करते थे। उस समय के किलेदार दौलतसिंह सांखला को लालच देकर उदयसिंह ने अपने साथ मिला लिया। उनके प्रयास से कुछ और सरदार भी उनके साथ मिल गए। उन दिनों राजकुमार जोरावरसिंह ऊदासर में थे। वहां एक गोठ में शराब के नशे में कुमार उदयसिंह ने षड्यन्त्र का भेद राजसी पड़िहार पर प्रकट कर दिया। वह राज्य का सच्चा हितैषी था, इसलिए वह षड्यन्त्र विफल हो गया। इस प्रकार उदयसिंह का उद्देश्य पूर्ण नहीं हुआ। यह घटना सन् 1733 ई. की है।
महाराजा सुजानसिंह ने इस घटना के दण्डस्वरुप रावत मुकनदास को पदच्युत कर दिया और उनके ज्येष्ठ पुत्र उदयसिंह को जयमलसर के उत्तराधिकार से वंचित कर दिया। उन्होंने रावत मुकनदास के सबसे छोटे, पांचवें भाई, किशोरसिंह को उनके स्थान पर रावत बनाया इस प्रकार उदयसिंह कभी रावत नहीं बने।
जोधपुर के महाराजा रामसिंह और उनके भाई बख्तसिंह के बीच में गृह युद्ध चल रहा था। बीकानेर के महाराजा गजसिंह ने बख्तसिंह की सहायता के लिए बीकानेर से सेना भेजी। इसमें रावत किशोरसिंह, उनके बड़े भाई मुकनदास, महाजन के ठाकुर, रावतसर के रावत और अन्य सरदार भी थे। महाराजा रामसिंह युद्ध में हार गए, विजयी बख्तसिंह जोधपुर के शासक बने। रामसिंह ने बीकानेर से बदला लेने के लिए बीकानेर पर आक्रमण किया। इस युद्ध में रावत किशोरसिंह मारे गए। रावत किशोरसिंह के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए उनके स्थान पर इनके बड़े भाई देईदास के पौत्र और खड़गसिंह के पुत्र, हिन्दूसिंह को रावत बनाया गया। जयमलसर के इतिहास में हिन्दूसिंह बड़े वीर योद्धा हुए हैं, इनका नाम जयमलसर के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखा गया है।
हिन्दूसिंह जब छोटी उम्र के थे तब वह कहीं जा रहे थे। उन्हें मार्ग में माता करणीजी मिली। उन्होंने हिन्दूसिंह से कहा कि कल एक सुनार उनकी मूरत लेकर आएगा, उससे वह मूरत ले लें। हिन्दूसिंह ने कहा कि उनके पास मूरत की कीमत देने के लिए रुपये नहीं थे। माता करणीजी ने कहा कि रुपयों की कोई बात नहीं, फिर कभी दे देना। दूसरे दिन भैरुजी सुनार का रूप धारण करके हिन्दूसिंह को मूरत दे गए। बाद में वह सुनार उन्हें ढूंढ़ने पर भी गांव में कहीं नहीं मिला। यह माता करणीजी द्वारा दी हुई मूरत अब भी जयमलसर ठिकाणे के पास है। जयमलसर के रावत भोजन करने से पहले इसकी धूप जलाकर पूजा करते हैं, उसके बाद में भोजन ग्रहण करते हैं।
सन् 1761 ई. में बहावलपुर (देरावर) के दाऊद पुत्रों ने मौजगढ़ और अनूपगढ़ का चूड़ेहर का किला किसनावत भाटियों से छीन लिए था। इस सेना का नेतृत्व मुबारक खां दाऊद का पुत्र कर रहा था। अनूपगढ़ के किलेदार मथुरा जोशी को उसने किला सौंपने के लिए विवश किया और किले पर अधिकार कर लिया। पहले चूड़ेहर खारबारा के किसनावत भाटियों के पास था, जिसे महाराजा अनूपसिंह के समय सन् 1678 ई. में उनके दीवान मुकन्द राय ने धोखे से उनसे छीन लिया था और बाद में भाटियों ने फिर इस किले पर अधिकार कर लिया था। बीकानेर के महाराजा गजसिंह ने दोनों किलों को लेने के लिए रावत हिन्दूसिंह को सेना देकर भेजा। रावत हिन्दूसिंह ने मौजगढ़ पर आक्रमण करके किले को घेर लिया। इन्होंने रात्रि के समय सीढ़ियों के सहारे किले में प्रवेश करके प्रहरियों पर आक्रमण किया और किले पर अधिकार कर लिया। उस किले के मुखिया मीर हमजा को बन्दी बनाकर साथ में बीकानेर ले आए, इसे जूनागढ़ की नेतासर जेल में रखा गया। मौजगढ़ पर अधिकार करने के बाद में उन्होंने सन् 1762 ई. में अनूपगढ़ के किले पर भी अधिकार कर लिया। बीकानेर ने यह किले दाऊद पुत्रों से छीनकर अपने पास रख लिए। उन्होंने किसनावत भाटियों को किले वापिस नहीं सौंपे। बीकानेर राज्य ने इस विजय की प्रशंसा करते हुए, गोपलान आदि गांवों की जागीर रावत हिन्दूसिंह को प्रदान की। किसनावत भाटियों ने अगले वर्ष, सन् 1763 ई. में, बीकानेर से अनूपगढ़ का किला छिन लिया।
महाराजा सूरतसिंह के समय की जयमलसर के रावत हिन्दूसिंह की ऐसी ही एक और घटना का वर्णन है। मौजगढ़ का किराणी मुसलमान मोहम्मद युसुफ बीकानेर राज्य से जकात लेने लग गया था। उसका ऐसा प्रभाव था कि वह बीकानेर खास की मन्डी से बेरोक-टोक जकात वसूल करके ले जाता था। राज्य के कर्मचारी उससे मिले हुए थे। महाराजा सूरतसिंह इन घटनाओं से चिन्तित रहने लगे एक दिन उन्होंने अपनी यह चिन्ता बम्बलू गांव के कीरतसिंह फौजदार को बताई, जिसने इस समस्या के समाधान के लिए रावत हिन्दूसिंह का नाम सुझाया। महाराजा ने गुप्त रुप से रावत हिन्दूसिंह को बुलाया, उनसे बात की, और गुप्त योजना बनाई। रावत हिन्दूसिंह ने मौजगढ़ पर अचानक आक्रमण करके किले को घेर लिया। एक रात उचित अवसर पाकर रावत हिन्दूसिंह सीढ़ियों के सहारे किले में प्रवेश कर गए। थोड़े से संघर्ष के बाद उन्होंने किराणी मोहम्मद युसुफ को परास्त किया और उनकी पत्नी को बन्दी बना लिया। जिसे बाद में पांच हजार रुपये और चार सौ ऊंट के बदले मुक्त कर दिया। जिस समय रावत हिन्दूसिंह मौजगढ़ के किले पर आक्रमण कर रहे थे, उसी समय उनके पुत्र खेतसिंह ने अपनी सेना से शिवगढ़ पर अधिकार करके फूलड़े के किले को जा घेरा। इधर से रावत हिन्दूसिंह मौजगढ़ विजय के बाद फूलड़े जाकर अपने पुत्र से मिल गए। इन दोनों ने मिलकर फूलड़े पर अधिकार कर लिया, किला छोड़ने के लिए वहां से सवा लाख रुपये प्राप्त किए जौर वहां की नौ तोपें साथ लेकर बीकानेर लौट आए। इस विजय अभियान से महाराजा सूरतसिंह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने जयमलसर के सम्मान में बढ़ोतरी की और साथ ही रावत हिन्दूसिंह को ग्यारह गांवों की जागीर अलग से दी। जयमलसर के भाटी सिरदारों की वीरता और स्वामीभक्ति के कारण बीकानेर राज्य में उनकी प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी हुई और जयमलसर ठिकाने को बीकानेर रियासत में प्रतिष्ठित ठिकानों में से एक माना जाने लगा था। जयमलसर ठिकाने की नौ घोड़ों की चाकरी थी और जयमलसर को जकात लेने के अधिकार भी प्राप्त थे।
रावत हिन्दूसिंह की इच्छानुसार महाराजा सूरतसिंह ने इनके देहान्त होने पर जयमलसर की जागीर उनके ज्येष्ठ पुत्र हीरसिंह को नहीं देकर उनके दूसरे पुत्र खेतसिंह को दी। रावत हिन्दूसिंह के तेरह पुत्र थे।
बीकानेर के महाराजा रतनसिंह ने सन् 1830 ई. में पूगल के राव रामसिंह पर आक्रमण करके उन्हें मार दिया था। बीकानेर की आक्रमणकारी सेना मोहनलाल के नेतृत्व में पूगल की ओर जयमलसर क्षेत्र में हो कर आगे बढ़ी थी। जयमलसर के रावत पीढ़ियों से बीकानेर राज्य के अधीन थे और वहां के शासकों की सेवा में थे। इसलिए जयमलसर ने बीकानेर की सेना को पूगल की ओर निर्विरोध जाने दिया, परन्तु जयमलसर के भाटी इस सेना के साथ पूगल पर आक्रमण करने नहीं गए थे।
रावत खेतसिंह के सात पुत्र थे। इनके बड़े पुत्र भोमसिंह बाद में रावत बने। रावत भोमसिंह के तीन पुत्र थे, इनके ज्येष्ठ पुत्र हणुन्तसिंह रावत बने। हणुन्तसिंह के समय बीकानेर में महाराजा सरदार सिंह का राज्याभिषेक हुआ, महाराजा सरदार सिंहजी ने हणुन्तसिंह को एक हाथी प्रदान कर उनका मान बढ़ाया था। रावत हणुन्तसिंह के दो पुत्र थे, इनके बाद बड़े पुत्र करणीसिंह रावत बने। रावत करणीसिंह के सात पुत्र थे, बड़े पुत्र शिवदानसिंह का देहान्त छोटी अवस्था में हो जाने से, उनके दूसरे पुत्र तेजसिंह रावत बने। रावत तेजसिंह के एकमात्र पुत्र मेहताबसिंह थे, जो इनके स्थान पर रावत बने। रावत मेहताबसिंह के बाद हरिसिंह जयमलसर के रावत बने, रावत मेहताबसिंह ने वाल्टर नोबल्स हाई स्कूल से शिक्षा प्राप्त की थी। रावत मेहताबसिंह एक ज्ञानी और दूरदर्शी व्यक्ति थे। वह समय के महत्व को समझते थे। इनका अपने क्षेत्र में अच्छा मान-सम्मान था। यह आम भाटी सिरदारों के सहायक और शुभ चिन्तक थे। रावत हरिसिंह का अब देहांत हो चुका है, इनके पांच पुत्र है - यदुसिंह, किशनसिंह, प्रभुसिंह, कुशलसिंह व भैरूसिंह। जयमलसर के वर्तमान रावत साहब दिवंगत हरिसिंह के ज्येष्ठ पुत्र यदुसिंहजी है।
जयमलसर की जागीर में निम्नलिखित दस गांव थे : (1) जयमलसर, (2) बोरलों का खेत, (3) नोखा का बास, (4) गोपलान, (लूणकरणसर) (5) भोजासर बास चोरड़ियान (6) बास खामरान, (7) डालूसर, (8) जालपसर (डूंगरगढ़) (9) तोलियासर (सरदारशहर), (10) सरेह भाटियान ।
इन गांवों की भूमि का क्षेत्रफल लगभग चार लाख बीघा था। इन गांवों से वार्षिक आय पांच हजार रुपये होती थी, इन्हें राज्य कोष में रकम रेख के रु. 1414/- देने होते थे। उपरोक्त गांवों में से तहसील लूणकरणसर, डूंगरगढ़ और सरदारशहर के तीन गांव, बीकानेर राज्य द्वारा जयमलसर के रावतों को उनकी सेवाओं के लिए दिए गए थे। शेष सात गांव पूगल द्वारा दिए हुए थे।
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