Jaisalmer History
रावल मूलराज और जैसलमेर का पहला साका (धर्म-युद्ध) और जौहर
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| जैसलमेर का पहला साका और जौहर |
रावल मूलराज और जैसलमेर का पहला साका (धर्म युद्ध) और जौहर
रावल जैतसी जी सन् 1276 में जैसलमेर की राजगद्दी पर बैठे। इनके दो पुत्र थे- राजकुमार मूलराज और राजकुमार रतनसी। राजकुमार मूलराज, जैतसी जी के बाद जैसलमेर के रावल बने। राजकुमार रतनसी रावल के छोटे पुत्र थे, इसलिए इन्हें स्नेह से "राणा" कहते थे, और इतिहास में यह "राणा रतनसी" के नाम से प्रसिद्ध हुए। राजकुमार मूलराज और राणा रतनसी दोनों भाई युद्ध प्रिय और स्वाभिमानी क्षत्रियत्व से भरपूर थे। यह दोनों भाई जैसलमेर राज्य से बाहर जाकर सिन्ध और मुल्तान प्रदेशों में डकैतियां करते और लूटा हुआ माल लाकर जैसलमेर के रावल जैतसी जी यानि अपने पिताजी को नजर करते। एक बार सिंध नदी के तट के पास 550 खच्चरों पर सोने की मुहरें लादकर, सिन्ध प्रदेश के करों का शाही खजाना नगरथट्टा से दिल्ली ले जाया जा रहा था। सिन्ध नदी के किनारे पर स्थित भक्खरकोट के पास दोनों भाई मूलराज और राणा रतनसी, अपने साथियों सहित शाही काफिलें पर टूट पड़े। काफिलें के साथ चल रहे पठानों को भाटियों ने मार गिराया और शाही खजाना लूटकर जैसलमेर लेकर आ गये। इससे दिल्ली का सुल्तान क्रोधित हो गया, लेकिन वह कोई ठोस कदम उठा नहीं पाया।
कुछ समय पश्चात दिल्ली के सुल्तान के पीरजादों(गुरूओं) का काफिला मक्का की तीर्थयात्रा करके और अपने अरब के खलीफा से मिलकर वापस दिल्ली लौट रहे थे, इन पीरजादों के पास बहुमूल्य उपहार, भेंट आदि थे - जिसका आकलन उस काल में तेरह करोड़ रुपयों के बराबर था, साथ ही इनके पास 2200 अरबी नस्ल के घोड़े थे, यह दोनों पीरजादे बिना अनुमति जैसलमेर के क्षेत्र में से होकर जाने लगे। अपने राज्य की संप्रभुता का यह तिरस्कार दोनों भाटी राजकुमारों मूलराज और राणा रतनसी को असहनीय लगा और दोनों भाटी राजकुमारों ने मिलकर पीरजादों का वध कर दिया और उनके सभी घोड़े और 13 करोड़ रुपए की धनराशि जब्त कर ली। भाटियों द्वारा बार-बार शाही खजानों को लूटने की घटनाओं पर दिल्ली का सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी क्रोधित हो गया। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने मीर महबूब खां और मूलतान के अली खां के नेतृत्व में मुस्लिम सेना भेजी जिसका मकसद था, भाटियों द्वारा लूटा हुआ खजाना वापिस प्राप्त करना और भाटियों को दण्डित करना। मीर महबूब खां और मुलतान के अली खां को भाटियों ने एक छोटे से युद्ध में मार डाला और शाही सेना का खूब कत्ले आम किया।
जैसलमेर में दो शेखजादों मीर महबूब खां और अली खां के युद्ध में मारे जाने से सुल्तान क्रोधित हो उठा और भाटियों को दण्डित करने के लिए उन्होंने लखनऊ के नवाब और सेनापति कमालुद्दीन गुर्ग को तीस हजार सैनिकों की विशाल सेना देकर जैसलमेर रवाना किया। इस सेना ने जैसलमेर आकर किले को घेर लिया। जैसलमेर के अभेद्य दुर्ग की घेराबंदी बारह सालों तक चलती रही। राजकुमार मूलराज के पुत्र देवराज भाटी किले के बाहर रहकर शत्रु सेना के लिए मंडोर से आने वाली खाद्य सामग्री को लूट लेते थे, जिससे मुस्लिम सेना को अपार कष्टों का सामना करना पड़ता था। भाटियों की सेना के लिए खाद्य आपूर्ति खड़ाल, धाट और बाड़मेर से होती रहती थी। मुस्लिम सेना ने जैसलमेर को काफी सालों तक घेरे रखा, लेकिन जैसलमेर के दुर्ग की विजय की कोई संभावना नहीं बनी। इसी बीच रावल जैतसी की किले में मृत्यु हो गई और इसके पश्चात मूलराज जैसलमेर के रावल बने। कई वर्ष बीत जाने के बाद भी जैसलमेर के किले को जीता नहीं जा सका, तब अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर के साथ 80 हजार सेना भेजी। मलिक काफूर के साथ मलिक केसर और सिराजुद्दीन भी साथ थे। मलिक काफूर और उसकी सेना ने जैसलमेर के दुर्ग पर बढ़ चढ़ कर हमले किए, परन्तु उनकों ही इन हमलों से भारी क्षति पहुंची और सफलता भी हाथ नहीं आई। इसके बाद मुसलमानों ने दुर्ग को जीतने के उद्देश्य से दुर्ग पर सीढ़ीयां लगाई और जैसे ही कोई शत्रु सैनिक ऊपर तक आता, उसे भाटियों द्वारा तलवार से काटकर नीचे फेंक दिया जाता।
अब मलिक काफूर ने एक योजना बनाई जिसके अनुसार किले का सिंहद्वार तोड़ कर सीधा भाटियों पर आक्रमण करना था। मलिक काफूर ने दुर्ग का सिंहद्वार तोड़ने के लिए 15 हाथियों को आगे किया। लेकिन इधर किले में जिरह बख्तर पहने हुए अपने 2000 राजपूत योद्धाओं के साथ रावल मूलराज सिंहद्वार के दूसरी तरफ आक्रमण से निबटने के लिए तैयार थे। एकाएक अचानक सिंहद्वार खोलकर रावल मूलराज और राणा रतनसी अपने योद्धाओं के साथ शत्रु सेना पर टूट पड़े और भाटियों ने शत्रुओं के साथ घमासान युद्ध लड़ा। इस युद्ध में मुसलमान 80 हजार के करीब थे और राजपूत केवल 2 हजार। राजपूतों ने अपनी प्रचण्ड शौर्य और पराक्रम का परिचय देते हुए 15 हाथी, सेनापति सिराजुद्दीन और मलिक केसर और 70 हजार शत्रुओं को भाटी राजपूतों ने मौत के घाट उतार दिया।
मलिक काफूर अपने बचे हुए सैनिकों के सहित भाग खड़ा हुआ। इस पराजय का बदला लेने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने वापस कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में 80 हजार सेना भेजी और फिर से कमालुद्दीन ने जैसलमेर के दुर्ग का घेरा डाल दिया। इस बार कमालुद्दीन गुर्ग ने जैसलमेर की घेराबंदी और कड़ी कर दी। किले को चारों ओर से घेरकर निगरानी रखी गई। रावल मूलराज के रावल बनने के बाद डेढ़ साल तक शत्रु का घेरा पड़ा रहा। अब किले के अंदर साधन व भण्डार सामग्री तीव्र गति से खाली हो रही थी। रावल मूलराज, खाद्य-सामग्री और सैनिकों की घटती संख्या से चिन्तित रहने लगे। किले के अंदर खाने-पीने की सामग्री के भारी अभाव को छिपाने के लिए रावल मूलराज के इशारे पर सूअरनियों के दूध को किले के ऊपर से नीचे फेंक दिया जाता, ताकि शत्रु सेना को लगे कि भाटियों के पास खाने-पीने की सामग्री के प्रर्याप्त भंडार बचे हुए हैं और वह किले के अंदर आनन्द से जीवन बीता रहे है। सूअरनियों के दूध वाले छल के नाटक ने शत्रुओं को गुमराह कर दिया और वह अपना शिविर समेट कर और घेरा उठाकर जैसलमेर छोड़ने की तैयारी करने में लग गए। लेकिन इस बीच भीमदेव जसोड़ आसकरणोत जिसकी रावल मूलराज के साथ कलह थी, उसने विश्वासघात करते हुए अपने एक मुलतानी सैनिक को किले के अंदर का सारा गुप्त भेद बता दिया, जिससे शत्रु सेना वापस घेरा जमाए बैठी रही। कई दिन बीतने के बाद रावल मूलराज के लिए अब स्थिति काफी कष्टदायक और असहनीय हो रही थी। इसलिए उन्होंने अपने भाटी प्रधानों और प्रमुखों से विचार-विमर्श किया और यह निर्णय लिया कि अपमानजनक समर्पण के बजाय सम्मानजनक शाका श्रेष्ठ रहेगा।
इसी अंतिम उद्देश्य से उन्होंने कुलगुरू से शाके की तिथि व घड़ी निकलवाई और कुंवारी भाटी कन्याओं का विवाह, रावल का साथ दे रहे खोखर, चौहान, पंवार आदि अन्य राजपूतों के साथ करवा दिए। यह परम्परा थी कि कुंवारी कन्याओं के जौहर में भाग लेने से उनकी पवित्रता दूषित हो जाती है। इसके बाद पोष कृष्ण 11, 1314 ई. को महारानी व अन्य राजपूत नारियों के द्वारा पहले जौहर किया गया, इसके पश्चात् सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर भाटियों ने कुलदेवी और कुलदेवता का ध्यान कर, केसरिया साफा धारण कर, कुसुम्बी पान कर, अभेद्य दुर्ग जैसलमेर के दुर्ग के कपाट खुलवाकर, नंगी तलवारें लेकर शत्रु सेना पर राजपूत भुखे शेरों की तरह टूट पड़े। शत्रु सेना में भयंकर हाहाकार मच गया, मात्र मुट्ठीभर भाटी राजपूतों ने 80 हजार की सेना में हड़कंप मचा दिया। मुगल केवल अपने बचाव के उद्देश्य से लड़ रहे थे। चारों ओर केवल भीषण मारामारी का माहौल था। किले के सामने भाटियों ने अंतिम सम्मानजनक बलिदान करके अपना जीवन न्यौछावर किया और किले के अंदर जौहर की पवित्र अग्नि ने अमूल्य स्त्रियों के जीवन को भस्म करके पवित्र राख में तब्दील कर दिया था। इस युद्ध में एक सौ बीस भाटी शहीद हुए और शत्रु सेना की ओर से मुल्तान का सेनानायक करीम खां युद्ध में मारा गया और 18 हजार शत्रु सैनिक मौत के घाट उतार दिए गए। ऐसा भी माना जाता है कि कई भाटी सरदार सर कटने के बाद भी युद्ध लड़ते रहे और जैसलमेर तथा भारत के स्वाभिमान की रक्षा के लिए बलिदान हुए।
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