भाटियों की कुलदेवी का इतिहास
मां आवड़जी (आयल) देवी की अद्भुत कथा
मां आवड़जी (आयल) देवी की अद्भुत कथा
महाभारत युद्ध से पहले चंद्रवंशी यदुकुल क्षत्रियों(राजपूतों) की कुलदेवी भगवती कालिका देवी थी, जिन्हें साहणों या सांगियाजी देवी भी कहते थे। श्रीकृष्ण की राजा जरासंध पर विजय सुनिश्चित करने के लिए कालिका देवी ने जरासंध से उसका दिव्य भाला (स्वांग) बलपूर्वक पकड़ कर एक झटके में छिन लिया था, क्योंकि भाला जरासंध के पास रहने तक वह दैविक वरदान के कारण अजेय थे। इसके पश्चात भीम ने द्वन्द्व में राजा जरासंध को मार डाला। क्योंकि कालिका देवी ने जरासंध से स्वांग (भाला) छिन लिया था, इसलिए उन्हें 'स्वांग-गृहीयाजी' या 'स्वांगियाजी' नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। राजा जरासंध से भाला छिनते समय हुई छीना-झपटी में भाले का अग्रभाग थोड़ा मुड़ गया था, इसलिए यदुवंशी क्षत्रियों(राजपूतों) और बाद में भाटियों के राजचिन्ह में भाले का अग्रभाग मुड़ा हुआ दिखाया गया है। इस घटना के पश्चात यदुवंशी क्षत्रियों एवं बाद में यदुवंश की उपशाखा भाटियों की कुलदेवी को 'स्वांगियाजी' या 'सांगियाजी' के सरल नाम से संबोधित किया जाने लगा।समय बीतने के पश्चात यदुवंश की एक प्रमुख शाखा भाटी क्षत्रिय के नाम से जानी जाने लगी। 750 शताब्दी के लगभग यदुवंशी भाटियों की नव-सृजित शक्ति व सत्ता मारोठ थी, मारोठ राज्य को पड़ोस की अनेक राजपूत जातियां व शत्रुभाव से चुनौती दे रहे थे। इसलिए विक्रम संवत् 827ई. में राव केहर ने तणोट के नये किले की नींव रखी और सतरह वर्षों पश्चात विक्रम संवत् 844 में किले के निर्माण का कार्य पूरा हुआ। किले के निर्माण में इतने अधिक वर्ष लगने का मुख्य कारण पड़ौस के वराह परमार, सोलंकी, लंघा, बलौच आदि राजपूत जातियों द्वारा हस्तक्षेप, विध्वंसक कार्यवाही और आक्रमण थे, एवं पड़ौस के सिन्ध प्रदेश में शक्तिशाली अरबों की उपस्थिति भी उन्हें निर्माण कार्य में बाधाएं उत्पन्न करती थी। उस दूरवर्ती प्राचीन काल में माड़प्रदेश में पंवारों और भाटियों की लुद्रवा और तणोट दो महत्वपूर्ण राजधानियां थी। माड़प्रदेश में नवांगतुक भाटी अलग-थलग पड़ने से वह अत्यंत संकटपूर्ण स्थिति में थे। इसलिए कुलदेवी सांगियाजी बहुत चिन्तित हुई और अपने कुलपुत्र भाटियों की सहायता के लिए उन्होंने अपना नया अवतरण लेने का मन बनाया।
इसलिए देवी मां ने छीलक गांव के मामड़ियाजी चारण की पत्नी माहावृति के चैत्र सुदी नवमी, वि. सं. 808 के दिन आवड़जी का जन्म हुआ। मां आवड़जी को मिलाकर वह सात चारण बहने थी। मां आवड़जी सात बहनों में सबसे बड़ी थी। सात बहनों का एक भाई भी था, जो सबसे छोटे थे, उनका नाम महरखोजी था।
मां आवड़जी और उनका चारण परिवार माड़प्रदेश में रहते थे। एक बार माड़प्रदेश में 12 वर्षों का महाकाल पड़ा था, जिसके चलते हुए मामड़ियाजी चारण अपने परिवार और अन्य भाई-बंधुओं, व गाय-भैंसे, ऊंटों, घोड़ों, भेड़-बकरियों सहित मूमणवाहन से बीस कोस दूर उत्तर दिशा में सिन्ध प्रदेश में स्थित नानणगढ़ नामक स्थान की ओर चले गए। नानणगढ़ पहुंच कर मां आवड़जी के परिवार ने हांकड़ा नदी के पास अपना डेरा जमा लिया। उस समय नानणगढ़ का सुल्तान आदन सुमरा था। मामड़ियाजी ने अपनी पुत्रियों को सावचेत किया था कि वह डेरे से ज्यादा दूर भटके नहीं और सातों बहनों को व्यस्त रखने के लिए मामड़ियाजी ने उन्हें सूत कातने के लिए कपास और चरखे लाकर दे दिए। अन्य लोग पशुओं और घोड़ों को पास के घास के मैदानों में चराने ले जाते थे, और सबके जानें के बाद आवड़जी सहित सातों चारण बहने गंवई लोक-खेल खेलती थी, उधर उनके चरखे किसी अदृश्य दैविक शक्ति से सुत कातते रहते थे।
एक दिन सभी सातों बहनों ने एक दूसरे को पास की हाकड़ा नदी में नहाने के लिए राजी कर लिया। जब सातों बहने नदी में स्नान करने का आनन्द ले रही थी, तभी संयोगवश लूंछिया नाम का नाई उधर से भटकता हुआ निकला। वह उन सातों बहनों को नदी में नहाते हुए देख कर हक्का-बक्का रह गया। झाड़ियों की ओट में रखे हुए सातों बहनों के वस्त्र वह चोरी करके ले गया और नानणगढ़ पहुंच कर उस नाई ने शहजादा नूरण सूमरा को उन बहनों के मनोहर नैसर्गिक सौंदर्य का वर्णन सुनाया।
कुछ समय पश्चात जैसे ही सातों बहने नदी में स्नान करके आई, तब वह अपने वस्त्र वहां ना पाकर वह दंग रह गई। तभी सातों बहनों ने दैवीय शक्ति से नागिन(सर्प) का रूप धारण कर लिया और रेंगती हुई वह अपने डेरे की झोंपड़ियों में पहुंच गई। थोड़े समय बाद लूंछिया नाई शहजादा नूरण सूमरा को साथ लेकर सातों बहनों के स्नान करने के नदी के किनारे लेकर पहुंचा। उन सातों बहनों को वहां ना पाकर वह कौतुहलवश वह रेत पर बने अनेक सर्पों के रेंगते हुए निशानों के पीछे-पीछे चल दिए। रेंगते हुए निशानों को पीछा करते हुए वह डेरे की झोंपड़ियों के सामने पहुंच गए और झोंपड़ियों में घुस गए और झोंपड़ियों में लूंछिये नाई और शहजादे नूरण सूमरा ने मां आवड़जी और उनकी बहनों को, सात शेरनियों के रूप में देखकर वह हतप्रभ हो गए। क्योंकि मां आवड़जी ने अपने आपको पहले 'नागिन' और बाद में 'सिंहनी' के रूप में बदला था, इसलिए इन्हें "नागणेचीजी" और "सिंहनियाजी" या "साहणो" नाम से सम्बोधित किया जाने लगा।
राजभक्त लूंछिये नाई द्वारा सातों चारण बहनों की सुंदरता के वर्णन से शहजादा नूरण सूमरा इतने आसक्त हो गए थे कि वह उनके साथ किसी भी प्रकार से विवाह करने के लिए अधीर हो उठे। परंतु मामड़ियाजी ने उनके इस प्रस्ताव को दृढ़तापूर्वक ठुकरा दिया। इसके बाद में सुल्तान आदन सुमरा ने अपने शहजादे नूरण सूमरा की इच्छा पूरी करने के लिए मामड़ियाजी को सात दिनों का समय दिया कि अपनी पुत्रियों का विवाह शहजादे के साथ करवा दे वरना उनके पूरे चारण कबीले पर मैं आक्रमण कर दूंगा। इसलिए मायड़ियाजी ने उसी समय ही वहां से पूरे परिवार के साथ प्रस्थान कर कहीं ओर चले जाने का निर्णय कर लिया। मामड़ियाजी ने जाने से पहले अपने साथ आए शेरा भाटी को सुल्तान के पास अपनी जिद छोड़ने की विनयपूर्वक प्रार्थना करने के लिए भेजा, परन्तु सुल्तान नहीं माना। इसलिए उन्होंने अपना वहां से डेरा उठा लिया और शीघ्रातिशीघ्र वहां से चले जाने का निश्चय कर लिया। जब उनका कारवां हाकड़ा नदी के तट पर पहुंचा तो उन्होंने पाया कि आसपास कहीं भी नदी पार करवाने के लिए नावें उपलब्ध नहीं है, और नदी में पानी भी इतना गहरा था कि नावों के बिना दूसरे किनारे पर पहुंच पाना संभव ही नहीं था। अपने पिता और उनके साथियों की असहाय दशा देखते हुए मां आवड़जी ने उत्तेजित होकर शेरा भाटी को एकाएक आदेश दिया कि वह उनके झुंड में सबसे मोटे मांसल भैंसें का तलवार से सिर काटे।
शेरा भाटी ने झुंड में सबसे बड़े भैंसें का सिर काटा और मां आवड़जी ने उसका रक्तपान किया और जोर से कर्णफोड़ू ठट्टा लगाया और अपने सात चल्लुओं में नदी के जल को पीकर सुखा दिया और फिर उनका कारवां धीरे-धीरे नदी पार करके दूसरे किनारे पर पहुंच गया। जैसे ही मां आवड़जी का कारवां नदी के दूसरे किनारे पहुंचा वैसे ही सुल्तान के सैनिक नदी के किनारे आ पहुंचे परन्तु मां आवड़जी की शक्ति के कारण नदी का जलस्तर बढ़ गया और सैनिकों का मार्ग अवरूद्ध हो गया। थोड़े समय पश्चात शहजादे की मृत देह नानणगढ़ के महलों में पाई गई।
इस चमत्कार के कारण मां आवड़जी की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। बड़ी संख्या में लोग मां आवडजी के दर्शनार्थ आते थे। लुद्रवा से राजा जसमान पंवार भी उनके दर्शनार्थ गए, परंतु गन्तव्य पर पहुंचने से पहले ही देवाजी अन्य स्थान के लिए प्रस्थान कर गई थी।
देवी के दर्शन के लिए आतुर युवराज तणुजी भाटी और युवरानी सारंगदे सोलंकीणी तणोट से चल पड़े। युवराज तणुजी भाटी ने अपने भाई भादरियाजी भाटी को पहले ही देवी की सेवा में पहुंचने के लिए भेज दिया था। भादरियाजी भाटी जब मां आवड़जी के पास पहुंचे तब साबादबुंग सेलावत के भैंसों के झुंड में सबसे बड़े एवं सबसे मोटे मांसल भैंसें की बलि मांगी। तब भादरियाजी भाटी ने अपनी "चक्राली" नाम की प्रसिद्ध तलवार से उन्हें भैंसें की बलि चढ़ा दी।
अत्यन्त लम्बी यात्रा से थके हुए युवराज तणुजी भाटी और युवरानी सारंगदे सोलंकीणी ने देवीजी के शिविर से बारह कोस पहले 'बोर' नामक रेत के धोरों के ऊपर विश्राम करने के लिए अपने रथ को रोक लिया। इस रेत के धोरों पर अति प्राचीन बेरी का पेड़ होने के कारण से इस धोरे को सभी "बोरा धोरा" के नाम से जानते थे। कष्टप्रद यात्रा से थककर चूर हुई युवरानी सारंगदे सोलंकीणी आगे की यात्रा करने में पूर्णतया असमर्थ थी। इसलिए उन्होंने श्रद्धापूर्वक जाल के पेड़ की एक सूखी बोरे धोरे पर रोप दी और अंत:करण से युवरानी सारंगदे सोलंकीणी ने मां आवड़जी से प्रार्थना की कि उनकी मनौती यही से वह स्वीकार कर लें और आगे की कष्टदायी यात्रा से त्राण दिलाने के लिए वह स्वयं बोरे धोरे पर प्रकट हो जाए। मां आवड़जी की कृपा से सुबह तक जाल की सूखी टहनी फूट कर हरी हो गई थी और कुछ समय पश्चात ही भादरियाजी भाटी के साथ मां आवड़जी स्वयं सशरीर बोरे धोरे पर प्रकट हो गई थी। उन्होंने प्रसन्न होकर युवराज तणुजी भाटी और युवरानी सारंगदे सोलंकीणी को आशीर्वाद दिया और भविष्यवाणी की कि उस समय के अराजकतापूर्ण वातावरण में उनका शक्तिशाली राज्य स्थापित होगा और उनके यदुवंशी भाटी वंशजों को चिरस्थाई शासन रहेगा और उनका पोता एक प्रसिद्ध राजा होगा।
युवराज तणुजी भाटी ने प्रतीज्ञा करके श्रद्धापूर्वक प्रण किया कि उनके समस्त भाटी भाई-बंधुओं एवं वंशजों में मां आवड़जी की पूजा-अर्चना की नित्यता रहेगी। उन्होंने भादरियाजी नामक स्थान पर मां आवड़जी के 'देवल' की स्थापना करके उसकी प्रतिष्ठा करवाई। जैसलमेर क्षेत्र में देवीजी के सातों देवलों में यह सबसे श्रेष्ठ देवल हैं। मां आवड़जी ने युवराज तणुजी भाटी को यह आदेश दिया कि बोरे धोरे के चारों ओर के क्षेत्र को चौबीस कोसों की परिधि में खुला रखकर गायों के लिए चरागाह हेतु इसे सुरक्षित रखा जाए। उन्होंने इस चरागाह क्षेत्र के आसपास के अनेक गांव अपने भाई भादरियाजी भाटी को जागीर में दे दिए। देवल एवं वह सारा क्षेत्र 'भादरियाजी' नाम से प्रसिद्ध है।
कुछ वर्षों पहले तक तो चरागाह का सारा क्षेत्र ज्यों का त्यों अछूता था, अब यह भारतीय सेना के लिए तोपाभ्यास के काम में लिया जाता है। भारत का प्रथम अणु विस्फोट इसी क्षेत्र में किया गया था।
युवरानी सारंगदे सोलंकीणी की निष्कपट समर्पण भाव से मां आवड़जी बहुत प्रसन्न हुई थी। अपनी सद्भावना उजागर करने के लिए मां आवड़जी ने बेरी के पेड़ से टंगे हुए झूले पर बैठकर उन्होंने एक लहरा लिया। यह झूला अभी भी भादरियाजी के देवल में रखा गया है। मां आवड़जी ने युवराज तणुजी भाटी से एक इच्छा व्यक्त की कि तणोट लौटकर वह उनका वहां एक मंदिर बनवाए और उस मंदिर का नाम 'तणोटियाजी' रखें, जिसकी प्राण-प्रतिष्ठा स्वयं वह अपने हाथों से करेंगी। मां आवड़जी ने उन्होंने उन्हें यह सलाह भी दी कि लुद्रवा पर आक्रमण करके वह उसे नष्ट नहीं करें, वहां के पंवारों के साथ अच्छा सम्बन्ध बनाए रखें, एक दिन लुद्रवा उनके पौत्र की राजधानी होगी।
बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाज राय के मंदिर के दर्शन करके लौटती हुई, मां आवड़जी तणोट में ठहरी, वहां उन्होंने स्वयं के सहित अपनी सभी बहनों की मूर्तियां स्थापित करवा कर नवनिर्मित मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा माघ महिने की पूर्णिमा, वार मंगलवार, विक्रम संवत् 844 के दिन विधिपूर्वक सम्पूर्ण करवाई। इस शुभ दिन के पश्चात मां आवड़जी को श्रद्धा पूर्वक से "तणोटियाजी" के नाम से भी जाना जाने लगा।
अनेक वर्षों बाद मां आवड़जी ने रावल सिद्ध देवराज भाटी को एक दिव्य तलवार भेंट करके उन्हें 121 वर्षों की दीर्घायु का वरदान दिया था।
मां आवड़जी ने 191 वर्ष धरती पर बिताने के पश्चात विक्रम संवत 999 में अपनी भौतिक देह त्यागी। तिमडे़राय की तरंग शिला पर बैठी हुई सातों बहने क्षितिज की ओर हिंगलाज राय की ओर टकटकी लगाती हुई अन्तरिक्ष के शून्य में सदा के लिए विलीन हो गई।
मां आवड़जी के अनेकानेक चमत्कारिक प्रणव कार्यों के लिए उन्हें विशिष्ट विशेषणों एवं अनेक नामों से सम्बोधित किया जाता है, जैसे :- नागणेचीजी, सिंहानियाजी, साहणो, कालेडूंगर राय, तिमड़ेराय, भादरिया राय, देगराय, तणोट राय, जूनी लाल री धणीयाणी, सांगियाजी आदि।
बहुत समय बाद रावल सिद्ध देवराज भाटी ने अपने राज्य में मां आवड़जी के सात देवल बनवाए। अब भाटियों के राज्य में कुल बावन देवल हैं।
कहते हैं कि सन् 1828 ई. में बीकानेर राज्य की सेना को जैसलमेर राज्य के महारावल गजसिंह द्वारा बासनपीर के युद्ध में पराजित किए जाने का श्रेय मां आवड़जी के आशीर्वाद के कारण माना जाता है। युद्ध जीतने के पश्चात कृतज्ञ महारावल गजसिंह ने भादरियाजी गांव में मां आवड़जी का नया व भव्य मंदिर बनवाया और महारावल गजसिंह भाटी ने आदेश जारी की किसी अपराधी द्वारा भादरिया जी के मंदिर या मंदिर के ओरण में शरण लिए जाने के पश्चात उसे राज्य बन्दी नहीं बनाएगा। सभी प्रमुख सामंतों, भाटियों, सोढ़ों, रावलोत भाटियों आदि ने इस घोषणा का अनुमोदन किया।
भादरिया जी स्थित मां आवड़जी के मंदिर का अंतिम जीर्णोद्धार सन् 1947ई. में जैसलमेर के स्वर्गीय महारावल जवाहर सिंह जी द्वारा करवाया गया था।
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